कभी आधा कभी पूरा

kabhi aadha kabhi pura

नवीन सागर

नवीन सागर

कभी आधा कभी पूरा

नवीन सागर

छतों की दूरियाँ लाँघता मैं छतों से गिरा

खिड़कियों से झाँकता हुआ

गलियों में गिरा कभी आधा कभी पूरा!

मैं निकाला गया

जिनमें झाड़ू दी लीपा-पोता उन घरों से

धक्के देकर पार्कों रेलवे स्टेशनों से

दोस्तों के एकांत से।

जिन्हें गोद में लिए मैंने गुज़ार दी रातें

उन बच्चों के पाँव से

काँटे की तरह निकाला गया मैं।

इस उस जगह से जहाँ छूटा रह गया

हर उस जगह से जहाँ कभी था।

गिरने से बार-बार

मैं टूटा-फूटा

निकाले जाने से मैं इकदम अपने बाहर हुआ।

मेरी देह का मैल छुड़ाती माँ

दूर पीछे छूटी हुई

बैठी है घिनौची में मेरा इंतज़ार करती

कपड़े सूखते हैं रस्सी पर सुनसान

बिस्तर पर खिड़की के आकार की

धूप धूल पड़ी है मेरे बिना

मेरी दातुन हौदी में हिल रही है अकेली

मेरा बस्ता मेरा स्कूल

मिट्टी की परतों में दबा हुआ

सुन रहा है मेरी आहट।

मैं युद्धों में मरा पड़ा हूँ

मेरा झोपड़ा जल रहा है

जिसे सींच-सींच कर बड़ा किया उस पेड़ पर

मुझे कुल्हाड़ी की तरह मारा जा रहा है

मुझे एक बच्चे से छीनकर

दी जा रही है रोटी

मेरे चेहरे पर सोचने के निशान हैं

मुझे घसीट कर पेश किया जा रहा है।

सूरज नहीं चाँद तारे संगीत चित्र भी नहीं

कविता से भी सुंदर लगता है मनुष्य

पर मैं क्या करूँ

कि जिस ज़ख़्म को धो रहा हूँ

उसे कुचलने में जिसे नहीं कोई हिचक

वह कैसे समझेगा मेरी भाषा

कैसे मैं इंकार कर सकूँगा उस पाप से

जो संसार के किसी कोने में कोई कर रहा है।

स्रोत :
  • पुस्तक : नींद से लंबी रात (पृष्ठ 87)
  • रचनाकार : नवीन सागर
  • प्रकाशन : आधार प्रकाशन
  • संस्करण : 1996

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