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जंगल की आग

jangal ki aag

शुभम नेगी

शुभम नेगी

जंगल की आग

शुभम नेगी

जब जंगल से धुआँ उठता है

क्या करता है गाँव?

घर की ओर कुलाँचें मारती आग को देख

भेजते हैं कुछ लोग घर की तरफ़ से

लपटों की दूसरी सेना

उधर से आती आग

इधर से जाती आग के आगे

रख देती है हथियार घर से कुछ दूर

जंगल सारा जलता है

जीव जाते हैं सारे मर

पर सीना ताने खड़ा रहता है

एक वीरान विजयी घर

कुछ-कुछ तो भूल जाते हैं

थ्री-स्टार एसी की ललित लोरियों में

आग की पत्थर-दिल परिभाषा

कुछ हैं, जिनकी आँखें

घुमाकर एड्जस्ट करती हैं लेंस; बनती हैं कैमरा

ढूँढ़ती हैं माचिस की तीली के निशान

बारूद की बदबू ओढ़े हाथ

अपने जलते घर पर फूँक बरसाते बेचारे से

ख़ुद ही का घर फूँक डालने का कारण पूछती हैं

ये आँखें करती हैं

जल-भुन चुके मुर्दों द्वारा

ख़ुद को जला-भुना देने के पीछे की

गहरी साज़िश का पर्दाफ़ाश!

जब जंगल से धुआँ उठता है

क्या-क्या नहीं करता गाँव!

पर कुछ हाथ हैं ऐसे

जो धुएँ की शंखध्वनि पर

हड़बड़ी में टटोलते हैं हरी टहनियाँ

उन्हें परचम की तरह लहराते

लपटों में इधर से उधर भागते हैं

और वहीं ठोक-पीटकर आग को

युद्ध का पटाक्षेप करते हैं

ये हाथ अपना घर जलने के ख़िलाफ़ नहीं

जलने की समूची प्रक्रिया के ख़िलाफ़ हैं

मैं चाहता हूँ ऐसा हाथ होना

ऐसा भी हो पाया तो

हे मेरी कविताओ!

तुम मंचों, पत्रिकाओं, संग्रहों से उतरकर

हरे पौधों की टहनियाँ बनना

जलते जंगल की जान बचाते

किसी निडर हाथ में जाने को

स्रोत :
  • रचनाकार : शुभम नेगी
  • प्रकाशन : समकालीन जनमत

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