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जाने से पहले अपने वक्ष पर स्थान दो देव!

jane se pahle apne waksh par sthan do dew!

ज्योति रीता

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ज्योति रीता

जाने से पहले अपने वक्ष पर स्थान दो देव!

ज्योति रीता

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    प्रेम का ज्वार सूख रहा है अंदर

    इस गोलार्ध पर प्रेम गोमेद रत्न है

    याकि गोपनीय उल्लास का कोई द्वार

    जिससे होकर प्रेम गोशा फ़रमाता है

    चित-पट जिस करवट भी बैठो

    प्रेम लगता है पीठ से सटकर

    वह सहलाता है पीठ

    वह पीठ के भीत पर खेलता है चौसर

    प्रेम चहबच्चा बना घूमता है हृदय-कोण में

    वह झाँकता है खिड़की के अंतिम सिरे से

    वह झपटना चाहता है वह बेर

    जो निहायत ही ठट्ठा है

    प्रेम छुटपन का वह झुनझुना है

    जो एक बार खोकर दुबारा कभी नहीं मिला

    पर उसे याद कर कुछ छीजता है अंदर

    प्रेम तुम्हारे सख़्त हथेली की वह लकीर है

    जिस पर मेरा नाम कभी ठाँव नहीं पाया

    अब प्रेम से फिरता है मन

    यह जटिल से जटिलतम है

    याकि गले में बाँधा कोई ताबीज़

    जिसका धागा छोटा होकर गले में फँसा है

    अब जनपद से उठने का समय हो गया है

    लोग जा चुके हैं

    अंतिम तैयारी मेरी है

    जाने से पहले अपने वक्ष पर स्थान दो देव!

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति रीता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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