Font by Mehr Nastaliq Web

जाड़े की शाम

jaDe ki sham

धर्मवीर भारती

धर्मवीर भारती

जाड़े की शाम

धर्मवीर भारती

जाड़े की हल्की बासंती दोपहरी ने

ज़रतार धूप की चुनरी में मुँह छिपा लिया,

हल्के नीले नभ की, उदास गहराई में

तैरती हुई

चीले भी थक कर हाँफ गईं!

पीपल के पत्तों में दिन-भर लुकते-छिपते

ये ख़ुश्क झकोरे मुँह लटका कर बैठ गए,

उस दूर क्षितिज की छाती पर

छाले-सा

सहसा

एक सितारा फूट गया;

इस दुनिया पर

थक कर आँधी बेहोश हुई इस दुनिया पर

कोहरे की पाँखें फैलाती

मँडराती

यम की चिड़िया-सी

धीमे-धीमे

उतरी आती

यह जाड़े की मनहूस शाम!

हर घर में सिर्फ़ चिराग़ नहीं, चूल्हे सुलगे

लेकिन फिर भी

जाने कैसा सुनसान अँधेरा

रह-रह कर धुँधुआता है,

छप्पर से छनता हुआ धुआँ

हर ओर

हवा की परतों पर छा जाता है;

बढ़ जाती है तकलीफ़ साँस तक लेने में!

हर घर में मचता हंगामा।

दफ़्तर के थके हुए क्लर्कों की डाँट-डपट

बच्चों की चीख़-पुकारें

पत्नी की भुनभुन,

लेकिन फिर भी इस शोरोगुल के बावजूद

इतना सन्नाटा, इतनी मुरदा ख़ामोशी

जैसे घर में हो गई मौत पर लाश अभी तक रखी हो।

मैं बैठा हूँ

यह शाम मुझे अपनी मुरदार उँगलियों से छू लेती है

माथा छूती

लगता जैसे प्रतिभा ने भी दम तोड़ दिया;

मस्तक इतना ख़ाली-ख़ाली

लगता जैसे

हो कोई सड़ा हुआ नरियल,

छूती है होंठ

कि लगता ज्यों

वाणी इतनी खोखली हुई

ज्यों बच्चों की गिलबिल-गिलबिल,

सब अर्थ और उत्साह छिन गया जीवन का,

जैसे जीने के पीछे कोई लक्ष्य नहीं,

दिल की धड़कन भी इतनी बेमानी,

जितनी वह टिक-टिक करती हुई घड़ी

जिसकी दोनों की दोनों सुइयाँ टूटी हों!

मैं अकुला उठता

और सोचता घबरा कर

यह क्या अक्सर मुझको हो जाया करता है?

प्रतिभा की वह बदमस्त जवानी कहाँ गई?

जिस दिन ये तुम ने फूल बिखेरे माथे पर

अपने तुलसी दल जैसे पावन होंठों से;

मैं महज़ तुम्हारे गर्म वक्ष में शीश छुपा,

चिड़िया के सहमे बच्चे-सा

हो गया मूक,

लेकिन उस दिन मेरी अलबेली वाणी में

थे बोल उठे,

गीता के मंजुल श्लोक, ऋचाएँ वेदों की!

क्यों आज नहीं

मेरी हर धड़कन में

उतना ही गहरा अर्थ छिपा रहता?

क्यों आज नहीं

मेरी हर धड़कन में

उतना ही गहरा दर्द छिपा रहता?

जिस दिन तुमने मेरी साँसों को चूमा, ये

भगवान राम के मंत्रबाण-सी

सात सितारों से जाकर टकराई थीं;

पर आज पर-कटे तीरों-सी मेरी साँसें,

हर क़दम-क़दम पर लक्ष्य-भ्रष्ट हो जाती हैं!

कुछ इतना थका पराजित-सा लगता हूँ मैं!

मैं सोच रहा,

यदि आज तुम्हारा साया होता जीवन पर

थी क्या मजाल

यह शाम मुझे इस तरह बना देती मुरदा!

इस तरह तुम्हारी पूजा का पावन प्रदीप

इस तरह तुम्हारी क्वाँरी साँसों का अर्चन

कुम्हलाती हुई धूप के सँग कुम्हला जाता!

लेकिन फिर भी मजबूरी है

तुम दूर कहीं, ख़ाली-ख़ाली भारी मन से,

धुप-धुप करती-सी ढिबरी के नीचे बैठी

कुछ घर का काम-काज धंधा करती होगी,

यह शाम मुझे इस तरह निगलती जाती है!

कोहरे की पाँखें फैलाती, नर-भक्षिणि

यम की चिड़िया-सी।

यह जाड़े की मनहूस शाम मँडराती है!

स्रोत :
  • पुस्तक : दूसरा सप्तक (पृष्ठ 171)
  • संपादक : अज्ञेय
  • रचनाकार : धर्मवीर भारती
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 2012

संबंधित विषय

यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल है

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY