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जब कभी

jab kabhi

अनुवाद : दिनकर सोनवलकर

पुरुषोत्तम शिवराम रेगे

अन्य

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और अधिकपुरुषोत्तम शिवराम रेगे

    जब कभी

    हवा के झोंके के साथ

    दूर झाड़ियों से

    शीत की एक लहर

    गरम किए हुए तार-सी

    छू जाती है,

    तब मैं सद्यःस्नाता

    खिड़की के पास खड़ी हुई होती हूँ,

    अंगों पर उमड़ी हुई

    गरमाई की अनुभूति के कारण

    मुझे कुछ भी नहीं सूझता।

    फिर

    हर रोज़ आने वाली शाम को

    खड़े-खड़े हो

    गरम किए हुए तार की वह लहर

    मैं अपने इर्द-गिर्द लपेट लेती हूँ

    जैसे विद्युत् की लता हो,

    अब

    मेरे अंग-अंग पर खिले हैं

    शत-शत फूल

    और मेरे दोनों हाथ

    अपने ही वक्ष पर रखे,

    शांत, एक पर एक

    दुखते हैं, टीसते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 81)
    • रचनाकार : पु. शि. रेगे
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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