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इतिहास के बारे में

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टॉमस ट्रांसट्रोमर

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    [1]

    मार्च का एक दिन, जा निकला हूँ समुद्र तक और सुनता हूँ।

    बर्फ़ इतनी नीली है, जितना कि आसमान। तड़क रही है वह धूप में।

    धूप, जो बर्फ़ की पर्त के नीचे भी फुसफुसा रही है एक माइक पर

    खुदबुदाती, बड़बड़ाती। और लगता है दूर कहीं कोई एक चादर झटक रहा है।

    यह सब इतिहासनुमा : अभी, बिलकुल अभी। हम निमग्न हैं, हम सुनते हैं।

    [2]

    सम्मेलन, उड़ते द्वीपों-से, जो कभी भी ढह सकते हैं...

    तब फिर : एक लंबा कँपकँपाता पुल समझौतों का

    गुज़रेगा जिस पर समूचा यातायात : नक्षत्रों की छाँव में।

    अजन्मे सुस्त चेहरों की छाँव मे बहिष्कृत जो

    सूने अंतरिक्ष में, अनाम हिमकणों की तरह।

    [3]

    ग्योएटे घूम आया अफ़्रीक़ा सन् छब्बीस में—ज़िद के चोले में

    और देख आया सबकुछ।

    कुछ चेहरे ज़्यादा साफ़ हो आते हैं मरणोपरांत

    देखी गई चीज़ों के कारण

    जब बाँचे गए दैनिक समाचार अल्जीरिया के

    प्रगट हुआ बड़ा-सा मकान एक, जहाँ सारी खिड़कियाँ

    काली पुती हुई थीं

    सिवा सिर्फ़ एक के। और वहाँ दीखा हमें ड्रेफ़स का चेहरा।

    [4]

    विद्रोही, प्रतिगामी साथ-साथ रहते हैं जैसे एक दारुण दाम्पत्य में।

    साँचों में एक-दूसरे के गढ़े जाते हुए, एक-दूसरे पर अवलंबित।

    हम, जो हैं उनकी संतान किंतु, होना ही होगा हमें उनसे अलग।

    प्रत्येक प्रश्न की पुकार अलग भाषा है—ख़ास उसकी अपनी।

    जासूसी कुत्ते की तरह वहाँ जाओ तुम, जहाँ भी सचाई ने छोड़े हों चरण-चिह्न

    [5]

    खुले मैदान में, इमारतों के पास ही

    रद्दी अख़बार एक पड़ा है महीनों से, ठुँसा हुआ ख़बरों से

    भींजता दिन-रात बारिश में, धूप में, बूढ़ा हो रहा है वह

    पौधा या पातगोभी बनने की राह में

    पृथ्वी से एकजान होने की राह में।

    ठीक उसी तरह, जिस तरह कोई याददाश्त

    रच-पच जाती है तुम्हारे स्वरूप में

    स्रोत :
    • पुस्तक : पुनर्वसु (पृष्ठ 341)
    • संपादक : अशोक वाजपेयी
    • रचनाकार : टॉमस ट्रांसट्रोमर
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1989

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