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स्त्री-विमर्श

istri wimarsh

विवेक चतुर्वेदी

अन्य

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विवेक चतुर्वेदी

स्त्री-विमर्श

विवेक चतुर्वेदी

और अधिकविवेक चतुर्वेदी

    मंच पर आभासी था

    स्त्री-विमर्श

    वास्तविक था वह नेपथ्य में

    विद्रूप हँसी की डोर से

    खींचे जा रहे

    लिप्सा और जुगुप्सा के

    पर्दों के बीच

    अतृप्त वासनाओं से

    धूसर ग्रीन रूम के

    उस विमर्श में थे

    स्त्री के स्तन ही स्तन

    फूले और माँसल

    ओंठ थे, जाँघे थीं, नितंब थे

    था मस्तिष्क, हृदय

    कविता लिखने को हाथ

    कंचनजंघा पर चढ़ने को पैर

    वहाँ अदीब थे, आला हुक्मरान... थिंकर...

    यूनिवर्सिटी के उस्ताद थे

    पर सब थे बदज़बान लौंडे

    नंगे होने की उनमें गज़ब की होड़ थी

    शराब में घोला जा रहा था

    भीतर का कलुष

    गर्म धुएँ में तानी जा रही थी

    स्त्री की देह...

    वहाँ चर्चा वैश्विक थी

    बड़ा था उसका फ़लक

    उसमें खींची जा रही थी स्त्री

    पहली और तीसरी दुनिया के देशों से

    न्यूयॉर्क और पेरिस

    नेपाल और भूटान

    इज़राइल और जापान

    उस रात विमर्श में

    स्त्री बस नग्न लेटी रही

    उसने धान कूटा

    पिलाया बच्चे को दूध

    वह ट्रॉम पकड़ने दौड़ी

    उसने देखी परखनली

    सेंकी रोटी

    रात तीसरे पहर उन सबने

    अलगनी पर टँगे

    अपने मुखौटे पहने

    और चल दिए

    वहाँ छूट गई

    स्त्री सुबह तक

    अपनी इयत्ता ढूँढ़ती रही।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विवेक चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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