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इस इक्कीसवीं-बाईसवीं सदी के समय में

is ikkisvin baisvin sadi ke samay mein

शिवानी कार्की

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शिवानी कार्की

इस इक्कीसवीं-बाईसवीं सदी के समय में

शिवानी कार्की

और अधिकशिवानी कार्की

    इस इक्कीसवीं-बाईसवीं सदी के समय में

    जब आतुर होकर कभी भय में

    कभी कहीं मर जाता है जल

    तो वहीं कहीं जल की तलाश में

    मर जाती है कई-कई मछलियाँ

    मिट्टी और आस-पास का जलमंडल।

    कभी कहीं मर जाते हैं पेड़

    तो वहीं कहीं पेड़ की तलाश में

    मर जाते हैं कई-कई पंछी

    जंतु और आस-पास का भूमंडल।

    कभी कहीं मर जाता है विकास

    और हो जाता है विनाश

    तो वही कहीं विकास की तलाश में

    मर जाती है कई-कई पीढ़ियाँ

    सतत पोषण और विकास के अभाव में

    और गड़बड़ा जाता है जलमंडल

    वायुमंडल, भूमंडल और?

    और समस्त पृथ्वी का भूगोल...

    बड़े ही विस्मय में

    इस इक्कीसवीं-बाईसवीं सदी के समय में

    अब यह मनुष्य के बाहर हुई ये मौत तो फिर भी

    लेकिन जब कभी कहीं आज के मनुष्य के अंदर ही

    मर जाता है प्रेम

    और संवेदना…

    और कठोरता बन जाती है आधुनिकता की परिभाषा

    तो कभी कहीं नही बल्कि हर जगह

    संवेदना भरे प्रेम, परवाह और विश्वास की तलाश में

    मर जाते हैं लोग

    मर जाती है मनुष्यता

    बड़े संशय में

    इस इक्कीसवीं-बाईसवीं सदी के समय में

    और प्रेम के अभाव में होने वाली ये मौत हत्याएँ हैं

    और इन हत्याओं से नहीं गड़बड़ाता भूगोल या कुछ और

    मगर समाप्त हो जाता है : ब्रह्मांड!

    समाप्त हो जाएगा : ब्रह्मांड!

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिवानी कार्की
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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