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इन दिनों चाय बागान

in dinon chay bagan

सुलोचना

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इन दिनों चाय बागान

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    नहीं तोड़ती एक कली दो पत्तियाँ

    कोई लक्ष्मी इन दिनों रतनपुर के बाग़ीचे में

    अपनी नाज़ुक-नाज़ुक उँगलियों से

    और देख रहा है कोई जुगनू टेढ़ी आँखों से

    बागान बाबू को, लिए ज़ुबान पर अशोभनीय शब्द

    सिंगार-मेज़ के वलयाकार आईने में

    उतर रही हैं जासूसी कहानियाँ बागान बाबू के घर

    दुपहर की निष्ठुर भाव-भंगिमाओं में

    नित्य रक्तरंजित हो रहा बागान

    दिखता है लोहित नदी के समान

    इन दिनों ब्रह्मपुत्र की लहरों में नहीं है कोई संगीत

    नहीं बजते मादल बागानों में इन दिनों

    और कोई नहीं गाता मर्मपीड़ित मानुष का गीत

    कि अब नहीं रहे भूपेन हजारिका

    रह गए हैं रूखे बेजान शब्द

    और खो गई है घुँघरुओं की पुलकित झंकार

    श्रमिक कभी तरेरते आँख तो कभी फेंकते पत्थर

    जीवन के बचे-खुचे दिन प्रतिदिन कर रहे हैं नष्ट

    मासूम ज़िंदगियाँ उबल रही है लाल चाय की तरह

    जहाँ ज़िंदा रहना है कठिन और शेष अहर्निश कष्ट

    बाईपास की तरह ढलती है साँझ चाय बागान में

    पंछी गाते हैं बचे रहने का कहरवा मध्यम सुर में

    तेज़ तपने लगता है किशोरी कोकिला का ज्वर

    है जद्दोजहद बचा लेने की, देखिए बचता क्या है!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुलोचना
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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