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हम कुछ लोग

hum kuch log

अनुवाद : हरिशंकर शर्मा

मणीन्द्र राय

अन्य

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मणीन्द्र राय

हम कुछ लोग

मणीन्द्र राय

और अधिकमणीन्द्र राय

    कौन कहता है यह सब भ्रांति है?

    हम कुछ लोग जितने स्वप्नों का निर्माण करते,

    वे नकली स्वर्ग—

    औचक ही टूट जाएँगे सब ही?

    तिल-तिल की यह वंचना अपना मूल्य

    सोने के भाव नहीं पाएगी,

    काल के स्तंभ पर हमारी भी

    सामान्य पदवी उत्कीर्ण नहीं होगी?

    बंधु, पृथ्वी पर सुदूरतम अतीत में जो वन था,

    उसका अगारित उद्भिद हृदय

    यदि आज भी

    सूर्य के अणुओं को खान के गर्भ में

    सहेज कर रखा है

    तो फिर हर जीवन के

    नवजन्म के रुदन के समय

    हम भी बचे हुए हैं।

    हम जो कवि ठहरे, बंधु,

    इसी से जीवन के जितने दाह

    वे सभी अपना तीक्ष्ण आवशी-शीशा

    पाते हैं इस हृदय को,

    यंत्रणा की हर कौंध में हम जलते रहते।

    फिर भी देखो कितना विचित्र

    दुस्साहसी प्राणों का प्रकाश—

    कि जब खिलते नहीं फूल,

    और कोयल की भी बंद कूक,

    हम दिन की आँखों में आँखें डाल

    फिर भी लिखे जाते।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 431)
    • रचनाकार : मणींद्र राय
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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