हम किस बात की प्रतीक्षा करते हैं?

hum kis baat ki pratiksha karte hain?

विजय कुमार

विजय कुमार

हम किस बात की प्रतीक्षा करते हैं?

विजय कुमार

हममें से बहुतों की उम्र अब चालीस को पार कर रही है

कुछ तो पचास को भी छूने लगे हैं

यानी पहले हम सीढ़ियों के नीचे सोते थे

कुछ सपने देखते थे

जो मनुष्य जाति की भलाई के सपने थे

अब हम इन सपनों को काँख में दबाकर

नींद में सीढ़ियाँ चढ़ते

दूसरो को धकियाते हुए

जल्दी से कहीं पहुँच जाना चाहते हैं

कभी जब आँख खुलती है

हम देखते हैं,

हममें से कुछ के चश्मों के नंबर बढ़ गए हैं

कुछ की तो तोंद निकल आई है

कुछ मधुमेह या रक्तचाप के मरीज़ हो गए हैं

कुछ जो पिछले वर्ष

लेनिन की मूतियाँ गिराए जाने पर उदास हुए थे

इस वर्ष एक-दूसरे की छोटी-छोटी सफलताओं से

ईर्ष्या करते बीत रहे हैं

हममें से कुछ के मकानों में एकाध कमरे ज़्यादा हैं

इसे वे अपनी निजी बातचीत में अब बताने लगे हैं

कुछ तो गर्मियों में पहाड़ों पर भी हो आते हैं

इसका हमें उन्हीं से पता चलता है

हममें से कुछ, जो अब तक पुरस्कृत नहीं हुए हैं

उन्हें इस बात का मलाल रहता है

अक्सर वे पुरस्कृत लोगों को परेशान किए रहते हैं

कुछ झूठ बोलना चापलूसी करना बेबात हँसना

अब बुरा नहीं समझते

कुछ है, जो अब भी तेवर दिखाते हैं

तो मौक़ा देखकर कभी-कभी दयनीय भी हो जाते हैं।

देखा जाए तो

हम सबके भीतर एक अलग तरह का अकेलापन घिर रहा है

चालीस-पैंतालीस की उम्र के बाद का

पर हम उसकी शिनाख़्त नहीं कर पा रहे

और हम सबके बच्चे

धीरे-धीरे हमारी ज़िंदगियों से बाहर निकल रहे हैं

कुछ तो अब हमें यदा-कदा अपमानित भी कर देते हैं

हममें से कुछ ने

अपने शयनकक्ष

अपनी संतानों को सौंप दिए हैं

कुछ अपना बिस्तरा समेटकर

किसी कोने में सिकुड़ गए हैं

हममें से कुछ

पिछले कई वर्षों से सो ही नहीं रहे हैं

स्त्रियाँ जो हमारे जीवन में आईं

उन्हें प्राचीन ऋषियों के शाप लग गए हैं

इस उम्र में अब हमें समझ में आने लगा है

पुलिस स्टेशन, अस्पताल के जनरल वार्ड,

स्थानीय विधायक, टटपूँजिया नेता, सरकारी बदइंतज़ामी

दिन-रात खुली रहने वाली दवाइयों की दुकानें

अख़बारों से पैदा होने वाली उकताहट,

रेडियो पर पुराने फ़िल्मी गीत

और कभी-कभी

एक पार्क की उदास तन्हा बैंच का

हमारी ज़िदंगी से नज़दीकी रिश्ता है

जीवन एक अजीब गोरखधंधा है

हम ख़ुदफ़रेब लोग हैं

कभी कोई मिल जाता है बरसों बाद

रास्ते में तो कहने लगता है

हमारे हाथ-पैरों की खाल अब सिकुड़नी शुरू हो गई है

कभी-कभी पेट में वायु का गोला भी बन जाता है

थोड़ी-सी स्थायी क़िस्म की शर्मिंदगी के साथ

अब हम मुतमइन ज़िंदगी के आदी होने लगे हैं

यद्यपि कोई इसका एक-दूसरे से ज़िक्र नहीं करता

दिन पहले से ज़्यादा छोटे हैं

पहले से कम है

अब मित्रों की संख्या

धीमे-धीमे कोई टेलीफ़ोन बजता है भीतर के कमरे में

यह उस रिसेप्शनिस्ट लड़की का होना चाहिए

जिसके साथ पिछले दिसंबर में मैटिनी शो में

दो-चार पुरानी फ़िल्में देखी थीं

यह टेलीफ़ोन उस नाहमवार आदमी का होना चाहिए

जो हमारे कंधे पर सिर रखकर रोता रहा कल रात स्वप्न में

टेलीफ़ोन बजता है। कट जाता है। बजता है। कट जाता है

कोई नहीं कहता

तुरंत चला यार। बीयर पीते हैं। इस दुनिया की माँ का...

पर जीवन इतना रूमानी नहीं है

हम चालीस के पार हो गए हैं

हम मुक्त नहीं है

भीतर से कुढ़ रहे हैं हम

हम एक वज़नी पत्थर की तरह

समय की नदी में डूबते जा रहे हैं

हम सबके कमरों में महान् लेखकों की थोड़ी-बहुत किताबें हैं

इन्हीं किताबों के पास विटामिन बी कॉम्प्लेक्स की गोलियाँ रखी हैं

पर हमें कुछ नहीं मिला

हमारे पास थोड़ी-सी चतुराइयाँ हैं

शब्द सूखे पत्तों की तरह झरते हैं

हमारे इस टुच्चे अहम् का कभी-कभी विस्फोट होता है

पर सिर्फ़ धुआँ निकलता है चाय के टेबल पर

हम आपस में अब खुलकर लड़ भी नहीं पाते हैं

एक अजीब तिक्तता में घिरे उदास हो जाते हैं

दिल्ली में कहता है एक दाढ़ीवाला दोस्त

यह केंद्र-विमुखता का समय है

कौन-सा केंद्र? कौन-सी विमुखता?

वहशियों की तरह अब कोई नहीं चीख़े है इन वीरानियों में

कोई भयभीत नहीं होता

कहीं, कोई घबराहट नहीं है

यात्राओं में एक पतली महीन आवाज़ आती है

केबिन में हवा का दबाव कम होने पर

गैस मॉस्क अपने आप नीचे गिर पड़ेगा

कृपया, मॉस्क को मुँह से लगाइए

और ज़ोर से साँस खींचिए

हम ज़ोर से खींचते हैं साँस

पर हवा है कि आती ही नहीं

थककर हम ऊँघने लगते हैं

हम ऊँघते हैं रेलगाड़ी में, बस में

कभी-कभी तो प्रतीक्षालयों में भी

ऊँघते हुए हम किसी बात की प्रतीक्षा करते हैं

हम किस बात की करते हैं प्रतीक्षा?

क्या चालीस से पचास के हो जाने की?

स्रोत :
  • पुस्तक : चाहे जिस शक्ल से (पृष्ठ 11)
  • रचनाकार : विजय कुमार
  • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
  • संस्करण : 1995

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