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हम और वे

hum aur ve

दीप्ति कुशवाह

अन्य

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दीप्ति कुशवाह

हम और वे

दीप्ति कुशवाह

और अधिकदीप्ति कुशवाह

    उनके हाथ रोपते हैं

    बिजली के खंभों की अंतहीन कतार

    जिसका कोई छोर नहीं गुज़रता

    उनके गाँव से होकर

    उनकी मेहनत लिखती है विकास की बारहखड़ी

    और श्रेय ले जाता है

    विज्ञापन-पटों पर मुस्कुराता परम-पुरुष कोई 

    वे अपनी गठीली हथेलियों पर 

    खड़े करते हैं भव्य प्रासाद 

    जिनके सामने खड़े होने की इज़ाज़त नहीं होती 

    उन्हें ही 

    उन्हीं की औरतें हैं

    महिला आयोगों की आभा से अछूती

    वीमेन-लिब के नारों से अनजान 

    छलछलाती इच्छाओं को पीकर 

    आपके लिए बनाती हैं पौष्टिक भोजन  

    कपड़े धोकर

    बर्तन माँजकर

    मालकिनों को देती हैं अवसर

    बढ़ा सकें वे अपना फैशन-ज्ञान

    मुँह में सीटियाँ दबाए रीतते हैं

    खुरदुरे हर पहर के साथ

    अपनी नींद को 

    आस की अँधी खोह में फेंककर 

    ठँडी रातों में जलाते हैं अपने हाड़

    ताकि गर्म कमरों में आप दुहरा सकें

    वर्ज्य फल चखने का इतिहास

    म्युनिसपैलिटी की गाड़ी में डालकर

    इन्हीं की लाशों को ठिकाने लगाया जाता

    पीठ से चिपके पेट वाली

    इनकी मूर्तियों से

    कला-दालानों में ‘वाह’ लूटा जाता

    बेच देते हैं अपनी ज़ुबान

    रोटियों की ख़ातिर

    आने वाली नस्लों को भी रेहन रख देते

    हमारे चैन का सामान जुटाकर 

    बाहर हो जाते वे 

    संवेदनाओं से हमारी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दीप्ति कुशवाह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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