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रघुवीर सहाय

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और अधिकरघुवीर सहाय

    हम लड़ रहे थे

    समाज को बदलने के लिए एक भाषा का युद्ध

    पर हिंदी का प्रश्न अब हिंदी का प्रश्न नहीं रह गया

    हम हार चुके हैं

    अच्छे सैनिक

    अपनी हार पहचान

    अब वह सवाल जिसे भाषा की लड़ाई हम कहते थे

    इस तरह पूछ :

    हम सब जिनके ख़ातिर लड़ते थे

    क्या हम वही थे ?

    या उनके विरोधियों के हम दलाल थे

    —सहृदय उपकारी शिक्षित दलाल?

    सेनाएँ मारकर मनुष्य को

    आजादी के मालिक जो हैं गुलाम हैं

    उनके गुलाम हैं जो वे आजाद नहीं

    हिंदी है मालिक की

    तब आज़ादी के लिए लड़ने की भाषा फिर क्या होगी?

    हिंदी की माँग

    अब दलालों की अपने दास-मालिकों से

    एक माँग है

    बेहतर बर्ताव की

    अधिकार की नहीं

    वे हिंदी का प्रयोग अंग्रेज़ी की जगह

    करते हैं

    जबकि तथ्य यह है कि अंग्रेज़ी का प्रयोग

    उनके मालिक हिंदी की जगह करते हैं

    दोनों में यह रिश्ता तय हो गया है

    जो इस पाखंड को मिटाएगा

    हिंदी की दासता मिटाएगा

    वह जन वही होगा जो हिंदी बोलकर

    रख देगा हिरदै निरक्षर का खोलकर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रघुवीर सहाय संचयिता (पृष्ठ 194)
    • संपादक : कृष्ण कुमार
    • रचनाकार : रघुवीर सहाय
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2003

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