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हिलते पीपल के पत्तों में

hilte pipal ke patton mein

अनुवाद : दिनकर सोनवलकर

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

अन्य

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दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

हिलते पीपल के पत्तों में

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

और अधिकदिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

    हिलते पीपल के पत्तों में

    नील आकाश से बहने वाली हवा नज़र आती है।

    उसकी सरसराहट में

    बादलों के बीच का मौन मुखर होता है।

    आख़िर किसकी अँजुरी से ग़लती है साँझ यह?

    और किसके गालों पर थिरकते हैं तारे ये हेमंती रात के?

    और अब, इसी गति-क्रम से महीने, एक पर एक,

    चरण पर चरण धरते हुए बढ़ते हैं,

    इसी लय से वर्षों के वृत्त होते हैं रूपायित।

    इसी सापेक्षता से दर्द-कातर क्षणों को चूमता है

    और जो-जो कुछ रीतना था इस प्रक्रिया में

    वही सभी भरता जाता है लबालब।

    कभी आँधियों और बिजलियों की गाँठें छूटती हैं।

    कभी ऊँची लहरें तटों पर फेंक देती हैं सीपी और शंख।

    कभी समुद्र बिसरा देता है रेतीले किनारों को,

    पता नहीं, कब कहाँ और किसके संबंध टूटते और जुड़ते हैं।

    लाख-लाख सूर्यो के सिकता कण जिसमें से गलते जाते,

    ऐसी वह अद्भुत समय घड़ी

    और क्षण-क्षण को गिनने वाला मैं स्तब्ध मौन,

    मेरा स्वगत कथन और मेरा मंत्र।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 63)
    • रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1965

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