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हमें भी जीना है

hamein bhi jina hai

अरविंद वेगड़ा

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अरविंद वेगड़ा

हमें भी जीना है

अरविंद वेगड़ा

और अधिकअरविंद वेगड़ा

    तू कर्म करता जा

    फल की आशा मत रख

    इस बात में कोई शंका नहीं है

    लेकिन उससे पहले

    तुम यह कहो

    कि किसने चिपका दी यह जाति

    मेरे साथ?

    और किसने मेरी परछाई को भी माना अछूत?

    नदी, तालाब और कुएँ भी रखे हमसे दूर?

    चेहरे पर आजिज़ी के भाव

    आख़िर कब तक रखने होंगे?

    और कब तक सहने होंगे

    ये ज़ख़्म?

    तुम्हारे धनुष का तीर हम बनें,

    कब तक आख़िर कब तक

    तुम्हारी बंदूक का बारूद हम बनें?

    जानता हूँ मैं कि

    तुम मूक हो

    जवाब नहीं है तुम्हारे पास

    देखो इसीलिए त्याग दी है

    तुम्हारी संभ्रांत कुलीन सीख (भगवत् वाक्य)

    अब हम कर्म करेंगे

    और फल की आशा भी रखेंगे

    सुन सकते हो तो सुन लो

    सिर्फ़ तुम्हें ही नहीं

    हमें भी जीना है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गुजराती दलित कविता (पृष्ठ 89)
    • संपादक : अनुवाद एवं संपादन : मालिनी गौतम
    • रचनाकार : अरविंद वेगड़ा
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2022

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