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हमारे समय में रंग

hamare samay mein rang

उमा शंकर चौधरी

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उमा शंकर चौधरी

हमारे समय में रंग

उमा शंकर चौधरी

और अधिकउमा शंकर चौधरी

    आजकल कुछ रंग हो गए हैं बेहद मनमौजी

    बेहद बड़बोले, बिगड़ैल

    वे निकल आए हैं बेनीआहपीनाला के दायरे से आगे बहुत आगे

    वे निकल आए हैं सड़क पर यहाँ-वहाँ हर तरफ़-हर तरफ़

    मन में सोचता हूँ रंगों के बारे में

    तो सबसे पहले दिखता है रक्त का ही रंग

    और सोचता हूँ कि सचमुच रक्त का भी अपना एक रंग होता है

    बेटी निकालती थी रंगों के बक्सों से रंग

    तो लगता था बाहर आसमान इंद्रधनुषी होता जा रहा है

    परंतु उसी इंद्रधनुष से कुछ रंग निकल कर गए हैं अब सड़क पर

    बेख़ौफ़

    रंगों के इतिहास को देखें तो

    राजा रवि वर्मा से लेकर हुसैन तक

    किसी ने कभी सोचा नहीं होगा कि

    उनकी कूची से फिराए गए इतने रंगों में से

    किन्हीं ख़ास रंगों की हो जाएगी इतनी अहमियत

    कब सोचा था वॉन गॉग ने उस जूते की तस्वीर बनाते वक़्त

    कि एक दिन ऐसा भी आएगा

    जब एक रंग बन बैठेगा इस प्रकृति का नियामक

    अब उसी रंग को देखकर चिड़िया

    अपने पंखों को फड़फड़ाना बंद कर देती है

    बंद कर देते हैं कुछ ख़ास लोग मुस्कुराना

    और बंद कर देती है उनकी पत्नियाँ अपनी रसोई में

    बरतन की कोई आवाज़, कोई खनक

    बंद कर देते हैं उनके बच्चे

    अपनी माँ की गोद में दुबके दूध पीने की चुपुर-चुपुर की

    मद्धिम आवाज़

    यह रंग अब रंग नहीं हमारे देश का वर्तमान है

    वर्तमान है, भविष्य है

    यहाँ तक कि इस देश का अर्थतंत्र है

    अर्थतंत्र ही नहीं, सूचनातंत्र है

    यहीं से बनता है वर्तमान यहीं से बनता है इतिहास

    यहीं से बनती है आदमी की ज़मीन

    और यहीं से बनता है उनका आसमान

    टेलीविज़न पर बढ़ गई है अब कुछ ख़ास रंगों की मात्रा

    चुभने लगा है आँखों को टेलीविज़न पर यह रंग

    दिखलाने जाता हूँ मैकेनिक के पास कि क्यूँ बढ़ गई है

    इस टेलीविज़न सेट में कुछ ख़ास रंगों की मात्रा

    मैकेनिक देखता है उस टेलीविज़न सेट को

    और समझने की करता है कोशिश

    वह जूझता है टेलीविज़न के उस रंग से

    और कहता है अब किसी भी टेलीविज़न सेट में ऐसा कोई बटन नहीं

    कि कर सके नियंत्रित इन रंगों के बड़बोलेपन को

    ये हो गए हैं बिगड़ैल

    मैकेनिक देखता है उन रंगों के सैलाब को

    टेलीविज़न सेट पर ग़ौर से

    और गिर पड़ता है पछाड़ खाकर वहीं बेसुध

    उस दिन तो हद ही हो गई

    जब मेरी चार साल की बेटी ने खोला अपना रंगों का पिटारा

    और रोती हुई दौड़ती आई मेरे पास

    कि पापा-पापा मेरे रंग के बक्से में तो लाल रंग है

    और ही है नारंगी

    पता नहीं कहाँ ग़ायब हो गए हैं मेरे बक्से से ये रंग

    पूछती है मेरी बेटी और मैं निरुत्तर हो जाता हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : उमाशंकर चौधरी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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