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गुलेल

gulel

जसवंत दीद

अन्य

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जसवंत दीद

गुलेल

जसवंत दीद

और अधिकजसवंत दीद

    खोजता रहा गुलेल वह, साल-दर-साल

    बचपन से ही, गुलेल।

    खोजता रहा, शहर के बाज़ारों में रौनक़ों में

    पिता-पुरखों के गाँव से, ननिहाल के कुएँ से

    गाँव की सीमा से भी, गुलेल।

    पिता के साथ गया, पहाड़ी यात्रा पर, पर्वतीय पेड़ों से

    छीलता रहा, पहाड़ी झरनों, बर्फ़ीली चोटियों

    खुले चाँद, तंग घाटियों, बहते दरियाओं, झरनों

    हवाओं में से—गुलेल।

    पिता ने बताया, होती थी अपने यहाँ नई कोरी गुलेल

    कहीं गुम गई। कहाँ, कैसे? नहीं मालूम। गुलेल

    सुनते ही लगता, अभी यहीं कहीं, यदि नहीं पता

    या नहीं बताते शायद, पिता गुलेल।

    देश-देशांतर, पृथ्वी, पानी, तारे सब लगते

    गुलेल, कठोर गहरे, सघन, अँधेरे में खोजी गुलेल

    गुम जाता जंगलों की गहरी ख़ामोशी में मुट्ठियाँ कसकर

    पेड़ों से निकलती हवा आवाज़ से, गौतम हो जाती गुलेल।

    बोधिवृक्ष की जड़ों में छिपी किन्नर कैलाश की चोटी छू रही

    ऋषियों-मुनियों की जटाओं में फँसी विभूतियुक्त देहों पर

    ओम् नमो के स्वर में भटकती, धरती की रचना से भी पूर्व गुलेल।

    गुलेल की खोज में समंदर के पागल होने की तरह

    हवा के आँधी में बदलने की तरह तेज़ बहते पहाड़ी

    दरिया की लहरों-सी, हो जाती वह यहीं कहीं गुलेल।

    सोचता, पूरे परिवार के सफ़ेद बालों से बन सकती है

    गुलेल, एक सदी की यात्रा या युग-पीढ़ी

    अथवा इससे भी परे

    तराशी जा सकती है गुलेल।

    गुलेल तनी-सी, उदास बेपरवाह

    उस लड़की की आँखों में से ली जा सकती

    उसकी उभरी देह से पकड़ी जा सकती है।

    अचानक सफ़ेद हो रहे

    अपने ही स्याह बालों में से गुलेल

    वह तलाशशुदा गुलेल।

    सहमा-सा हैरान खोजता

    बरसों, उमर-भर, समय-साँसों में

    छिपा लेता बचपन से ही गुलेल।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 498)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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