Font by Mehr Nastaliq Web

घड़ी

ghaDi

शचींद्र आर्य

अन्य

अन्य

और अधिकशचींद्र आर्य

    वक़्त घड़ी से निकलकर कब बाहर आया होगा और

    कब उसके भीतर चला गया यह एक पहेली ही थी।

    दिन, रात, सुबह, शाम पहले भी रहे होंगे।

    तब घड़ी नहीं रही होगी।

    धूप, बारिश, कोहरा, उमस पहले भी रहे होंगे।

    तब भी घड़ी नहीं रही होगी।

    घड़ी के आने के बाद क्या-क्या बदल गया होगा?

    सिनेमा हॉल के मैटिनी शो की भीड़

    दो बीस पर आने वाली मैलानी पैसेंजर की चाल

    खाना खाने के बाद घंटाघर पर खड़े महेंदर की रेहड़ी

    या अभी उस तरफ़ से आते हुए

    तुम्हारी देह से रिसती हुई भीनी-भीनी पसीने की गंध

    कुछ भी तो समझ नहीं आता।

    यह वक़्त हरदम शहर में

    नदी की तरह सड़कों पर बहता हुआ दिखाई पड़ता है।

    पहले पहल

    सड़कें शहर में शहर की घड़ी के मानिंद बिछ गई होंगी।

    उनके सर्पिल विस्तार ने सब कुछ ढक लिया होगा।

    फिर कभी मुझे तुम्हारे साथ इस नदी में कभी डूबना नहीं था।

    हमारे बीच यह तय नहीं हुआ था। पर क्या करूँ?

    तुम ही थी जो पैदल चलते हुए मुझे वहाँ मिली।

    मुझे लगा तुम तैर रही हो।

    कितनी तो तुम सुंदर लगी थी मुझे,

    और डूब तो मैं तभी गया था, जब तुमने कहा था,

    दिन और रात भी तब होंगे, जब हम उन्हें दिन और रात कहेंगे।

    बिलकुल उसी पल से,

    जबसे तुमने यह कहा है,

    तब से दिन हुआ है, रात हुई है।

    कोई महीना बदला है, कोई साल आया है।

    तब वह पहेली

    मेरे लिए हमेशा के लिए सुलझ गई।

    तब महसूस हुआ,

    कभी यह भी कोई सवाल रहा होगा।

    अब मुझे पता है,

    वक़्त घड़ी से निकलकर

    कब बाहर आया होगा

    और कब उसके भीतर चला गया होगा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शचींद्र आर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए