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गर्हित वह गणतंत्र

garhit wo gantantr

वीरेंद्र वत्स

अन्य

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वीरेंद्र वत्स

गर्हित वह गणतंत्र

वीरेंद्र वत्स

और अधिकवीरेंद्र वत्स

    (सन् 1988)

    गर्हित वह गणतंत्र कलंकित अरे वहाँ का शासन

    जहाँ विपुल वैभव में पोषित भूख और नंगापन

    आज़ादी की जंग छिड़ी थी जिन प्रश्नों को लेकर

    अट्टहास कर रहे आज वे हमें तबाही देकर

    पहरे में अभिव्यक्ति, छिन्न हैं तार सभी मानस के

    प्यासी आँखें, पथराए जलवाह निठुर पावस के

    अपनी भारत भूमि जहाँ मिट्टी में स्वर्ग छिपा है

    कण-कण में जीवन का जड़ से शुभ संसर्ग छिपा है

    रत्न उगे इस भू पर जिसका ख़ून-पसीना पीकर

    निराहार-निर्वस्त्र पड़ा वह मरा हुआ-सा जीकर

    जर्जर काया से लिपटा है फटा-पुराना बोरा

    जो धरती का लाल उसी का खाली पड़ा कटोरा

    महँगू-सहतू चोथू-मोथू दयानंद-गिरधारी

    व्यर्थ अश्रु की धार, करो अब आगे की तैयारी

    मातृभूमि की हर थाती पर है अधिकार तुम्हारा

    तुम समर्थ हो तुम्हें तुम्हारे पागलपन ने मारा

    जागो हे पददलित दीन-दुर्बल मजदूर-किसानो

    जागो हे मस्तिष्क देश के, जागो वीर जवानो

    अब सोए तो यह प्रभात फिर हाथ नहीं आएगा

    अँधकार घनघोर प्रलय का तुम पर घहराएगा

    दौड़ो-दौड़ो आओ-आओ साथी शूर समर के

    तुम्हें शत्रु से लोहा लेना है अपने ही घर के

    ध्यान रहे तुमको भी पावन मन से आना होगा

    लोभ-मोह-मतवाद हृदय से दूर भगाना होगा

    बढ़ो तोड़ दो मक्कारों के स्वर्ण भरे तहख़ाने

    तोड़ो उनका दंभ, लगा दो उनके होश ठिकाने

    भ्रम की कारा तोड़ आन पर बढ़ो तुम्हारी जय हो

    देशद्रोहियों की छाती पर चढ़ो तुम्हारी जय हो

    स्रोत :
    • रचनाकार : वीरेंद्र वत्स
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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