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गाँव-एक

gaanv ek

रविंद्र कुमार

जहाँ मैंने जीवन के बिताए ढाई दशक

जहाँ मैं पैदा हुआ, खेला कूदा

अपने बाप की उँगली पकड़ कर हुआ बड़ा

देखे मेले, तीज, त्योहार!

जिसकी मिट्टी की ख़ुशबू मेरे तलवों में अब तक रमी हुई है

लौट कर जाने के नाम पर ज़ेहन में जो जगह उभरती है

मैं सात समंदर पार, अपने गाँव, घर, घर वालों से दूर

कल एक दोस्त ने फ़ोन पर मुझसे कहा—

“मैं गाँव चला जाऊँगा

करूँगा खेती

उधर एक बनवाऊँगा घर

धीरे-धीरे”

मैं हँसा, पता नहीं शायद हँसा

या रो पाने की मज़बूरी में खिंच गई होंगी होठों की लकीरें

मुझे याद आया अपना गाँव

बारिश में छत टपकता घर

ज़मींदार का कर्जा

बैंक का लीगल नोटिस

गाँव के दबंगों की गुंडगर्दी

गाँव के चौपाल वाले नल पर हुई लड़ाई

एक बूढ़ी औरत देती गालियाँ

“अरे लड़के अगर हमारे मटके से छू गया तो मार पड़ेगी”

पानी के लिए लगी लंबी कतार, गालियाँ, घृणा।

घर में बंधी बकरी, उसकी मींगन, उसके मूत से उठती दुर्गंध

भैंस, भैंस का गोबर, उपले, धुआँ, बिस्तर में चीथड़े

गाँव के साथ याद आई मेरी माँ

एक बेजान उदास चेहरा

उसकी फटी एड़ियाँ

जवानी में जो दिखने लगी साठ साल की बूढ़ी औरत

मेरे हाँफते-खाँसते पिता, बीड़ी का धुँआ मुँह में दबाए,

लाल आँखे और पीला चेहरा लिए।

जो सारी उम्र ढोते रहे अपने सर पर टोकरी उसी गाँव में,

उनकी फटी बनियान, कुपोषित शरीर, गड्ढे में धंसी आँखें

ऊँची पैंट जो कई सालों से पहनते रहने के कारण फट गई थी कई जगह से

शराबी पड़ोसी, अपने बाप को पीटते बेटे

पत्नी और बच्चों को शराब पीकर गालियाँ देते, मारते-पीटते अधेड़

क़र्ज़ में दबे, ज़मींदार की धौंस सहते बूढ़े

जिन्हें गाँव के ज़मींदार के, मेरी आधी उम्र के लड़के बुलाते थे नाम से

देते गालियाँ, कहते ढेढ़, चमार।

मैं आँखें बंद करके सोचता हूँ

क्या यह मेरा ही गाँव है

क्या मैं भी कह सकता हूँ कि मैं गाँव जाऊँगा बनवाऊँगा एक घर

तभी अंदर से कोई चीखता है—

आग लगे इस गाँव को!

स्रोत :
  • रचनाकार : रविंद्र कुमार
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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