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बाँसुरी

bansuri

जी. शंकर कुरुप

अन्य

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और अधिकजी. शंकर कुरुप

    लीला-भाव से जीवित गीतों को गाने वाले

    दिशा और काल की सीमाओं से निर्बंध हे महामहिमामय!

    मैं जनमा था अज्ञात-अपरिचित

    कहीं मिट्टी में पड़े-पड़े नष्ट हो जाने के लिए,

    किंतु तेरी वैभवशालिनी दया ने

    मुझे बना दिया है बाँसुरी

    चराचर को आनंदित करने वाली।

    तूने अपनी साँस की फूँक से

    उत्पन्न कर दी है प्राणों की सिहरन

    इस निःसार खोखली नली में।

    मन को मगन कर देने वाले

    अखिल विश्व के अनोखे गायक!

    तू ही तो है जो मेरे अंदर गीत बनकर बसा है;

    अन्यथा क्या बिसात थी इस तुच्छ जड़ वस्तु की

    किंचित भी कर सकती राग-आलाप

    इस प्रकार हर्षोल्लास से भरकर।

    मंद-हास का मनोरम नवल घवल फेन,

    प्रेम प्रवाह की कलकल मन्द्र ध्वनि,

    मानव अहंकार की उद्दाम लहरों का उछाल,

    अश्रुसिक्त नेत्रों के नीले कमल,

    दैन्य-दारिद्रय के वर्षाकालीन मेघों की काली छाया,

    सांसारिक पापों के भँवर-जाल

    —इन सब को साथ लिए-लिए बहती रहे

    मेरे अंदर की संगीत-कल्लोलिनी यह सरिता

    हे प्रभु!

    स्रोत :
    • पुस्तक : ओटक्कुष़ल (बाँसुरी) (पृष्ठ 3)
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक जी. नारायण पिल्लै, लक्ष्मीचंद्र जैन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1966

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