फ़र्क़ नहीं पड़ता

farq nahin paDta

केदारनाथ सिंह

केदारनाथ सिंह

फ़र्क़ नहीं पड़ता

केदारनाथ सिंह

हर बार लौटकर

जब अंदर प्रवेश करता हूँ

मेरा घर चौंककर कहता है ‘बधाई’

ईश्वर

यह कैसा चमत्कार है

मैं कहीं भी जाऊँ

फिर लौट आता हूँ

सड़कों पर परिचय-पत्र माँगा नहीं जाता

शीशे में सबूत की ज़रूरत होती है

और कितनी सुविधा है कि हम घर में हों

या ट्रेन में

हर जिज्ञासा एक रेलवे टाइम टेबुल से

शांत हो जाती है

आसमान मुझे हर मोड़ पर

थोड़ा-सा लपेटकर बाक़ी छोड़ देता है

अगला क़दम उठाने

या बैठ जाने के लिए

और यह जगह है जहाँ पहुँचकर

पत्थरों की चीख़ साफ़ सुनी जा सकती है

पर सच तो यह है कि यहाँ

या कहीं भी फ़र्क़ नहीं पड़ता

तुमने जहाँ लिखा है ‘प्यार’

वहाँ लिख दो ‘सड़क’

फ़र्क़ नहीं पड़ता

मेरे युग का मुहाविरा है

फ़र्क़ नहीं पड़ता

अक्सर महूसूस होता है

कि बग़ल में बैठे हुए दोस्तों के चेहरे

और अफ़्रीका की धुँधली नदियों के छोर

एक हो गए हैं

और भाषा जो मैं बोलना चाहता हूँ

मेरी जिह्वा पर नहीं

बल्कि दाँतों के बीच की जगहों में

सटी है

मैं बहस शुरू तो करूँ

पर चीज़ें एक ऐसे दौर से गुज़र रही हैं

कि सामने की मेज़ को

सीधे मेज़ कहना

उसे वहाँ से उठाकर

अज्ञात अपराधियों के बीच में रख देना है

और यह समय है

जब रक्त की शिराएँ शरीर से कटकर

अलग हो जाती हैं

और यह समय है

जब मेरे जूते के अंदर की एक नन्हीं-सी कील

तारों को गड़ने लगती है।

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 91)
  • संपादक : परमानंद श्रीवास्तव
  • रचनाकार : केदारनाथ सिंह
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 1985

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