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आँखें—घूमता आईना

ankhen—ghumta aina

कैलाश वाजपेयी

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कैलाश वाजपेयी

आँखें—घूमता आईना

कैलाश वाजपेयी

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    बोतल में बंद

    आँखों का जोड़ा, जिस

    युवती का है, वह

    अभी सुबह

    बस पर चढ़ने की कोशिश में

    कुचल कर मरी थी

    नेत्रदान की, क्योंकि

    कर चुकी थी घोषणा

    आँखें अब बंद हैं बोतल में

    इन आँखों ने क्या-क्या देखा

    अनदेखा किया होगा

    यह बता पाएगा

    शहर में घूमता आईना

    कितना सोई होंगी, जाग जाने से पहले

    ये आँखें

    कभी भूख, कभी ब्याह हो पाने की

    पीड़ा से रोई भी होंगी

    आँखों को बड़ी सज़ा मिलती है

    आँख होने की

    क्या-क्या नहीं देखती-दिखातीं आँखें

    द्रष्टा को

    अनदिखे के लिए तरसतीं

    खुली रहकर भी

    बंद, कभी जागरूक होकर भी

    चोरी हो जाती हैं।

    हो सकता है ये आँखें रही हों

    फंदवार

    अमिय हलाहल भरी

    अकारण रतनार

    जहाँ टँकी थीं सुबह

    असंग उस जल फुँकी देह से

    इन आँखों को कैसा लगेगा?

    अब नए चेहरे पर

    रोपे जाने के बाद का नज़ारा

    कितना मायावी-दुर्निवार

    सारा का सारा—दृश्य जगत्

    जो देखे जाने को तरस रहा

    खिड़कियों पर पड़े

    पारदर्श परदे से।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भविष्य घट रहा है (पृष्ठ 19)
    • रचनाकार : कैलाश वाजपेयी
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1999

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