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एरिया फ़िफ़्टी वन

eriya fifti van

लक्ष्मीकांत मुकुल

अन्य

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लक्ष्मीकांत मुकुल

एरिया फ़िफ़्टी वन

लक्ष्मीकांत मुकुल

और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल

    यह इलाक़ा कोई गुप्त सैन्य ठीकाना नहीं है

    ही चंबल घाटी का बीहड़ या अबूझमाड़ के जंगल

    यह मेरे मौजा-ए-महाल के खेवट, खेसरा,खतियान में अंकित,

    भूमि का एक टुकड़ा है जिसके अभिलेख में अंकित है बेनामी,

    जिसके मापन में सरक जाती है

    नक्शे से अमीन की गुनिया और जरीबकशों के हाथों से मूठ

    कभी यह डुमराँव राज की गैरमजरूआ मिल्कियत थी,

    जिस पर बबूल की घनी झाड़ियाँ फैली थी चारों तरफ़,

    वन चिराँठ, वन छिहुली, कुरखेत की तरह पसरा हुआ,

    चरवाहे अपनी गाय, भैंस,बकरी, भेड़  के 'हेड़ा' छोड़ देते थे

    उसमें चरने के लिए और कुश्ती, लगड़ी खेलने में हो जाते थे निमग्न

    कहते हैं कि किसी ज़माने में की एक रात में अपने पशुओं को लेकर बुधवा रुका था

    उसी एरिया फ़िफ़्टी वन में अकेला निर्भीक, आधी रात को धमके पशुचोरों के गिरोह 

    वह भीड़ गया था हत्यारों से वनमैन आर्मी की तरह नॉनस्टॉप पर,

    वह खेत रहा असंख्य के भाला-बरछी की वार से छिल-बिल लहूलुहान होता हुआ 

    अब उधर नहीं जाते चरवाहों के झुँड झाँकने भी 

    उस ज़मीन के पास खेती करने वाले किसान 

    बरा देते हैं आर कोन के समय उसके मेड़ों की रेख

    उस पर उग आए हैं जटही, डुभकी, सेहुँड़, नखदवन के काँट

    जिस पर स्यारों ने बना लिए हैं मांदे, दीमकों ने ऊँची बाँबी

    जब भी आती है कभी बुढ़िया आँधी 

    तो भागने-टकराने-कराहने की आवाज़ आती है

    उधर से जेठ की लपलपाती लू में कुछ लोग दौड़ते दिखते हैं

    दृष्टिभ्रम में, भादो की घनी अँधेरी बारिश वाली रात में 

    आती है पशुओं के खुरों के रगड़ने जैसी आवाज़ 

    माघ की शीतलहरी के उझंख दिनों में

    उस ओर से आती हैं घुग्घओं की हू-हू भरी सिसकियाँ

    जाने कब तक ख़ौफ़ खाएँगे मेरे गाँव के लोग 

    उस उजाड़ एरिया फ़िफ़्टी वन से 

    जिस ओर देखने मात्र से सिहर जाते हैं

    सबके चेहरे आशँकाओं से भरे इस समय में।

    स्रोत :
    • रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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