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एक तिनके से खेलते हुए

ek tinke se khelte hue

ममता बारहठ

अन्य

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ममता बारहठ

एक तिनके से खेलते हुए

ममता बारहठ

एक तिनके से खेलते हुए

दिन बीत जाया करता है

रात उसी तिनके की याद से खेलते हुए

धूप एक सफ़ेद काग़ज़ की तरह उड़ती है

सूरज के साथ

वे जगहें

जहाँ कहने को बहुत कुछ बिना कहे रह जाता है

मैं वहीं कहीं लौट जाती हूँ अक्सर

धूप का कोरा काग़ज़

समय की आँधियों में फड़फड़ाते हुए

आँखों के आगे जाता है बार-बार

मैं धूप के टुकड़े को

घुटनों पर रखकर घंटों बैठी रहती हूँ

पर कोई अक्षर

कोई नाम उस पर लिख नहीं पाती

देखती रहती हूँ दोनों हथेलियों को बारी-बारी से

जैसे हम एक दूसरे के सामने खड़े हैं

जो भी कहने को था

वह कहा जा चुका था...

एक दूसरे की आँखों में देखते हुए

हम उसी को दोहरा रहे थे

मैंने देखा

कई दफ़ा आँखें क़लम हो जाती हैं

जो लिखती हैं : पढ़ते हुए

मैंने धूप पर लिखा है

आँखों से अपनी

ख़ुद को देखते हुए

इस बार।

स्रोत :
  • रचनाकार : ममता बारहठ
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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