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एक थी सुनरी-एक

ek thi sunri ek

सुधा उपाध्याय

अन्य

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सुधा उपाध्याय

एक थी सुनरी-एक

सुधा उपाध्याय

और अधिकसुधा उपाध्याय

    एक थी सुनरी

    जो नहीं जानती जात-धरम,

    जमात की आड़ में हो रहे थे छद्म, भितरघात

    वहशी इरादों से तार-तार होती रही उसकी अस्मत

    एक थी सुनरी

    जो नहीं कर सकी अपनी सात साल की बच्ची का सामना

    नहीं दिखा सकी अपनी कालिख पिया को

    मुँह छिपाती रही सास-ससुर से

    समाज के कलंक को जला डाला अपने साथ ही

    दे डाली अपने चीथड़ों की आहुति

    एक थी सुनरी

    कलंकी घूम रहा है मूँछों पर ताव देता

    सुनरी की छितराई अस्मत बन गई घर घर की चर्चा

    सुना है मीडिया कर्मी घसीट लाएँ हैं पूरे परिवार को स्टूडियो में

    सुनरी की लुटी अस्मत अब घर गाँव-शहर देश की सभी विधान सभाओं में गूँजेगी

    अब न्याय-अन्याय मिले मिले जग हँसाई तो रहेगी

    एक थी सुनरी

    जिसकी सात साल की बच्ची हर गली सड़क चौराहे पर पहचानी जा रही है

    बुढ़िया सास अंचारे से मुँह ढँककर जाती है हाट बाज़ार

    पति और ससुर का बंद है हुक्का पानी

    विस्थापित परिवार बन गया है विषय गोष्ठियों का

    एक थी सुनरी, एक है सुनरी, एक और होगी सुनरी...

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुधा उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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