एक अरूप संसार मेरे भीतर
ek arup sansar mere bhitar
कई बार यों लगता है
मानो पक्षी वृक्षों पर नहीं
मेरे भीतर किलोलें कर रहे हैं
अंदर-ही-अंदर बहता है
एक धीमा मधुर पवन
मुस्कराते भाँति-भाँति के फूल
नृत्य करती हैं किरनें / वृक्षों पर झूमतीं—
अनगिनत चपल लहरें
पँखुड़ियों-सा उड़ता मेरा मन
भीतर-ही-भीतर निर्मल होता तन।
उस वक़्त यों लगता है—
न तो मैं कोई साँचा हूँ
न किसी के हाथों ढाला गया आकार,
मैं एक अरूप लय हूँ
कुदरत के इकतारे पर निर्भय रुनकती
संगीत की एक कोमल-सुरीली तान
समय की अनबोली अनुगूँज
कि मेरे भीतर विकसित होता जीवन-राग
जिसमें निर्निमेष रास करें सपने-
सृजन की कामना
करवटें बदले
एक समूचा अरूप संसार मेरे भीतर।
- पुस्तक : आधुनिक भारतीय कविता संचयन राजस्थानी (1950-2010) (पृष्ठ 130)
- रचनाकार : सुमन बिस्सा
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
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