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बची हुई पृथ्वी

bachi hui prithwi

लीलाधर जगूड़ी

लीलाधर जगूड़ी

बची हुई पृथ्वी

लीलाधर जगूड़ी

आज का दिन इस घाटी में मेरा दूसरा दिन है

और एक-एक कण की रणगाथा से भरी समुद्र-सहित तैरती यह पृथ्वी

आती-जाती रोशनी का तट है

ज़मीन की भाषा में ज़मीन को। पानी की भाषा में पानी को

कुछ कहना कितना मुश्किल है

अपनी भाषा में अपने को कुछ कह भी सकूँ और यहाँ रह भी सकूँ

कितना मुश्किल है

फिर भी हरे टुकड़ों के बीच। इस जगह एक घर होता

स्वाद से भरा। रोग से बचा। तो सुंदर कितनी थी यह नदी

‘गूँगे ख़ामोश हैं’ ऐसा एकदम नहीं कहा जा सकता

क्योंकि कई गाँवों को मज़बूत क़िलों में बदलने वाले पत्थर

यहाँ इंतज़ार कर रहे हैं

और आकाश की जीभ बनकर ताक़तवर सन्नाटा

जंगल चखने के बाद इन्हें चाट रहा है

काई, इन पर उस समय की यादगार है

जो काई था, पत्थर, जंगल, नदी

जबकि किस मुल्क के ईश्वर का समय

मौत का समय नहीं है?

सूर्योदय के आस-पास यह नदी है

और नदी के आस-पास यह सूर्योदय;

नए हैं। क्योंकि पृथ्वी पुरानी

जिस पर एक दिन की लकड़ियाँ कई दूसरे दिनों का ईंधन हैं

तंबू के पीछे एक दूसरे दिन का धुआँ उठ रहा है

सन्नाटे के हाथ पर जैसे चिलम गई हो

जो चीज़ें, जो बातें जिन लोगों में अभी नहीं हैं

वे उनके लिए नई होंगी अगले साल

अगले साल के पीछे नहीं दिखाई दे रहा है

जो एक और अगला साल

उससे कहीं ज़्यादा साफ़ दिखाई दे रहा है

कई वर्ष पुरानी इस जगह पर मेरा यह दूसरा दिन

अगले क्षण इस दिन की चाय कहीं नहीं होगी

तीसरे दिन के सामान में से चौथा दिन बचाना है।

स्रोत :
  • पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 99)
  • रचनाकार : लीलाधर जगूड़ी
  • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
  • संस्करण : 2018

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