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दुःख : कैंपस में इतवार

duःkh ha campus mein itwar

प्रवासिनी महाकुड़

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प्रवासिनी महाकुड़

दुःख : कैंपस में इतवार

प्रवासिनी महाकुड़

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    ‘उल्लास एक मौसम

    हे मेरे दर्शक

    विषाद है शाश्वत काल।’

    एक तो है वसंत

    तिस पर है इतवार

    आज तुम बहुत याद रहे हो।

    कौन छू जाता है मेरी समग्र सत्ता को

    कौन फिर घेर लेता है पूरे कैंपस को, क्या पता।

    आच्छन्न कर देता है सुबह, शाम और रात

    क्या पता? सीने में है दर्द बहुत

    मगर जाने कहाँ पर होता है दर्द

    दिखाया नहीं जाता

    सब कुछ देखना मुमकिन होने पर भी

    पलकें नहीं उठाई जातीं।

    रेलिंग के उस पार तीन सौ मील तक

    सन्नाटे का साँय-साँय अनुभव

    लगता है दूर दिगंत में मेरे

    सुंदर फूस का घर जल रहा है

    अनदेखी आग में धीरे-धीरे

    गर्मी के दिन मरीचिका की तरह अदृश्य हो जाते हैं

    नदी बन कर बह जाते हैं बारिश के दिन

    सर्दियाँ मिट जाती हैं कोहरे की तरह

    तुम किसमें होते हो

    कविता में या समय में?

    या कविता : समय में

    बोलो!

    छै की छै ऋतुएँ तो हैं दुःखों की

    तुम जानते हो;

    क्या इतवार, क्या सोमवार

    हर दिन दुखवार

    तब बोलो तो समय से उधार माँगूँगी मैं

    कितने साल? बाईस साल... साठ साल

    सौ शरद और फिर इंतज़ार करूँगी

    किस मुहूर्त के लिए?

    किन दृश्यों के जाल में

    सुख-बंधन के लिए

    बैठी हूँ पता नहीं...

    शायद इंतज़ार ही नहीं किया मैंने!

    जानते हो कदंब के पेड़ में फूल बनकर खिलता है

    ललिता का दुःख...

    यमुना की धारा बनकर बह जाते हैं

    राधा के अलावा सोलह सहस्र गोपियों के आँसू

    सारे फूल तो हैं दुःखों के।

    बोल दो तुम कुंतलाकुमारी से

    बोल दो कि वह इतना दर्द-भरा मधुर गीत

    और सुनाएँ शेफाली के लिए।

    अपना सबकुछ उघार चुकी हूँ मैं

    चाहे हो जितना दूर

    आँसुओं से भीगी नज़रों से मेरे कैंपस का

    सारा कुछ अस्पष्ट-सा दिखता है

    और भी धुँधला-सा दिखता है तुम्हारा

    दुःखों का क़िला : बड़ा घर

    शून्य अस्पष्ट और सुदूर

    इतवार आज इतवार

    तुम हो दुःख : तुम शाश्वत काल

    कैंपस में इतवार

    आज तुम बहुत याद रहे हो!

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द सेतु (दस भारतीय कवि) (पृष्ठ 45)
    • संपादक : गिरधर राठी
    • रचनाकार : कवयित्री के साथ दीप्ति प्रकाश एवं प्रभात त्रिपाठी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1994

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