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दीवारें

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टॉमस ट्रांसट्रोमर

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    नहीं यहाँ भी चैन...भीत के पिछवाड़े ही हो जाता—आरंभ शोर

    का

    वह सराय है जहाँ खिलखिलाते या लड़ते

    लोग नोचते रहते हरदम एक दूसरे को धकियाते, दाँत पीसते

    या टेसुवे बहाते;

    और वही पागल बहनोई, थर्राते हैं जिसे देख सब

    मानो हो मौत का डाकिया।

    भारी बम विस्फोट, देर से पहुँचा दस्ता

    खाड़ी पर हिलती नौकाएँ, अच्छी-ख़ासी रक़म

    पहुँचाती ग़लत आदमी की जेबों में

    निर्निमेष फूलों से झरती आशंकाएँ महायुद्ध की

    हटो वहाँ से, पहुँचो सीधे दीवालों को भेद साफ़ उस फ़ोटोघर में

    उस लमहे में, जी जाता है जो सदियों तक

    तस्वीरें—जो कहलातीं 'संगीत पाठ' या

    नीले कपड़ों वाली औरत चिट्ठी पढ़ती

    उस का है आठवाँ चल रहा, धड़क रहे दो दिल उस के भीतर

    पीछे की दीवार दिखाती मुचा हुआ नक़्शा अनपहचानी धरती का।

    हाँफो नहीं...वहाँ कुर्सी पर ठुँका हुआ नीला-सा कुछ

    बटन सुनहले फिंके कहीं से सर्राटे से

    और रुक गए वहीं अचानक

    जैसे वे बस इसी तरह चुपचाप पड़े हो रहे हमेशा

    लगातार यह गूँज कान में गहराई या ऊँचाई की

    यह दरअसल दबाव उधर दीवार-पार का

    वह दबाव जिसके कारण हर तथ्य तैरता रहता

    और तूलिका भी हाथों में सधी हुई रहती है।

    बड़ा कष्टकर दीवारें भेदना; हमें यह कर देता बेचैन

    मगर है काम ज़रूरी।

    दुनिया तो है एक। मगर दीवारें...

    और तुम्हारे ही शरीर का हिस्सा है दीवार...

    भले इसे तुम पहचानो या मत पहचानो, लेकिन यह तो सच है सब

    के लिए

    छोड़ केवल बच्चों को। उन के लिए कोई दीवारें।

    आसमान है साफ़ और नीला...दीवार से पीठ टिकाए सुस्ताता है

    करता ज्यों प्रार्थना शून्य से

    और शून्य मुख मोड़ हमारी ओर फुसफुसाता है :

    मैं हूँ ख़ाली नहीं, खुला हूँ, बस इतना ही।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 243)
    • संपादक : वंशी माहेश्वरी
    • रचनाकार : टॉमस ट्रांसट्रोमर
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 2020

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