दिल और मन का रावण

dil aur man ka rawan

वसीम अकरम

वसीम अकरम

दिल और मन का रावण

वसीम अकरम

इस बार दशहरे में फिर

हम जलाएँगे रावण

शायद इस बार

भ्रष्टाचार रूपी रावण की बारी है

उसे जलाकर हम मनाएँगे जश्न

बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न।

बुराई के बजाय

बुराई के प्रतीक को जलाकर

कितना ख़ुश होते हैं हम

और अगली सुबह से ही

अपने कारोबार को फिर

जीने लगते हैं वैसे

जैसे रोज़ जिया करते थे इससे पहले,

शराब पीकर सड़क पर

बेवजह रिक़्शे वाले को डाँटकर

उसे अन्ना बनने का

बेवक़ूफ़ी भरा मशवरा दे डालते हैं।

ख़ुद में बुराई ढूँढ़ने की बजाय

दुनिया को बुरा कहने से

कभी नहीं हिचकते हम

कंधे पर गुनाहों की पोटली लिए

दर-ब-दर भटकते हैं

मगर दूसरे को गाली देने से

बाज़ नहीं आते कभी भी।

काग़ज़ी रावण तो

मर जाता है हर साल

मगर

हमारे ज़हनो-दिल में रोज़

जन्म लेता है एक रावण।

जिस दिन हम ख़ुद को

गाली देना सीख लेंगे

उस दिन हमारे दिल का रावण भी

मर जाएगा ख़ुद-ब-ख़ुद।

स्रोत :
  • रचनाकार : वसीम अकरम
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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