देशभक्त हे!

deshabhakt he!

आर. चेतनक्रांति

आर. चेतनक्रांति

देशभक्त हे!

आर. चेतनक्रांति

सपाट सोच, इकहरा दिमाग़, दिल पत्थर।

सैकड़ों साल से ठहरी हुई काई ऊपर।

बेरहम सोच की ख़ुदकश निगहबान से फ़रार।

तुम जो फिरते हो लिए सर पे क़दीमी तलवार।

तुमको मालूम भी है वक़्त कहाँ जाता है!

और इस वक़्त से इंसान का रिश्ता क्या है!

तुम जो पापों को दान-दक्षिणा से ढकते हो।

और भगवान् को गुल्लक बना के रखते हो।

तुम जिन्हें चीख़कर ताक़त का भरम होता है।

ज़ुल्म से अपनी हुक़ूमत का भरम होता है।

तुम जिन्हें औरतों की आह मज़ा देती है।

जिनको इंसान की तकलीफ़ हँसा देती है।

तुम जिन्हें है ही नहीं इल्म कि ग़म क्या शै है।

कशमकश दिल की, निगाहों की शरम क्या शै है।

तुम तो उठते हो और जाके टूट पड़ते हो।

सोच की आँच पे घबरा के टूट पड़ते हो।

ठहरते हो सुनते हो झिझकते हो।

राम ही जाने कि क्या-क्या अनर्थ बकते हो।

यूँ कभी देश कभी धर्म कभी चाल-चलन।

असल वजह तो इस ग़ुस्से की है ये ठोस बदन।

इससे कुछ काम अब दिमाग़ को भी लेने दो।

ज़रा-सा गोश्त गमो-फ़िक्र को भी चखने दो।

जोशे-कमज़र्फ़ इस मिट्टी को नहीं भाता है।

इसको दानाँ की उदासी पे प्यार आता है।

इसने हमलावरों को लोरियों से जीत लिया।

ख़ून के वल्वलों को थपकियों से जीत लिया।

लेके लश्कर जो इसे जीतने आए बाबर।

इसका जादू कि उन्हीं से उगा दिए अकबर।

तंगनज़री से इसे पहचानना मुमकिन ही नहीं।

नफ़रतों से इसे पहचानना मुमकिन ही नहीं।

इसको जनना ही नहीं, पालना भी आता है।

सिर्फ़ भारत की माँ नहीं, ये विश्वमाता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : वीरता पर विचलित (पृष्ठ 20)
  • रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 2017

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