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मरुपथ

marupath

अनुवाद : हरिशंकर शर्मा

बुद्धदेव बसु

अन्य

अन्य

और अधिकबुद्धदेव बसु

    जब तक लौटने की गुंजाइश थी,

    कुछ भी समझ सका।

    और जब ताका चहुँ ओर

    नज़र आई केवल बालू;

    अंतरालहीन दिगंत;

    मकड़ियाँ, कँटीली झाड़ियाँ,

    दो-एक ऊँटो के कंकाल;

    भाषा की बस्ती को घेरे हुए

    आकाश का विराट कोष्टक

    क्रमशः उत्पीड़न से

    सभी चिंताओं को भस्म में परिणत कर

    स्थिर हो जाता है।

    उसके मांस, मेद को राँध देतीं

    सूर्य की प्रखर किरणें मानो

    उसे पाताल मे फिर जन्म देंगीं;

    और उसकी तृष्णा चलती पीछे-पीछे

    कुत्तों के एक झुंड की तरह।

    आख़िर, जब मरीचिका का पर्दा फटने पर,

    दिखाई पड़ता प्रथम खजूर—

    बालू के काले वृत्त मे

    प्रसव का मृदु अनुमान—

    घुटने टेक बैठ जाता तब वह

    अँगुलियाँ व्याकुल हो

    गड्ढा खोद पानी निकालने लगती:

    थोड़-सा पानी, तृष्णा मिटाने को भी अपर्याप्त।

    फिर भी स्पर्श नई ऋतु का

    अपने बीजाणु बिखेर देता;

    सिक्त हाथ, कोहनी के लोमकूपों में

    फलने लगते फल;

    एवं दर्शन-स्निग्ध कंठ को भेद

    फूट पड़ती संध्या की अज़ान।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 529)
    • रचनाकार : बुद्धदेव बसु
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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