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जो सुहाग बनाते हैं

jo suhag banate hain

रमाशंकर सिंह

रमाशंकर सिंह

जो सुहाग बनाते हैं

रमाशंकर सिंह

किसी बाग़ में

छतनार या ठूँठ पेड़ के नीचे

गाँव की ठीक चौहद्दी पर

किसी पुल के नीचे

किसी विश्वविद्यालय की दीवार से पीठ सटाकर

वे मौर बनाते हैं

बाँस से

दूल्हे अपनी प्रियतमा के घर

कितनी शान से जाते हैं

उनकी मेहनत पहनकर

जाने कितने गीत बने

कितने-कितने कंठों ने गाई उनकी सुंदरता

वे ग़ायब रहे इन गीतों से

जैसे वे बाँस की खपच्ची हों

नामालूम, तुच्छ

वे बनाते हैं डाल

जिसमें रखा जाता है

ब्याहता स्त्रियों का सौभाग्य

साजते हैं उसे रच-रचकर

जैसे ईश्वर जान डाल रहा हो

किसी काया में

एक-एक अंग में

उन्हें डर लगता है कि कहीं

कोई बूढ़ी स्त्री डाल को देखकर मुँह बिचका दे

वे टिखटी बनाते हैं

जिस पर आदमी चढ़कर जाता है श्मशान

उसमें भी क़ायदे से कील ठोकते हैं

आदमी गिर जाए कहीं

बीच रास्ते में

उन्हें मरे हुए आदमी का वज़न मालूम है

इस देश ने

जनतंत्र ने

भारत भाग्य विधाता ने

उतनी ही शिद्दत से नहीं सुनी उनकी बात

जितने शिद्दत से बनाए उन्होंने मौर, डाल और टिखटी

इस शहर से उस शहर

इस बाग़ से उस बाग़

यहाँ तक कि इस श्मशान से उस श्मशान तक

आख़िर कब तक घूमेंगे वे

हरा बाँस और बाँका लिए

कब आएगा उनके घर

शुभ

कब होगा मंगलगान?

स्रोत :
  • रचनाकार : रमाशंकर सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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