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दादा की हवेली

dada ki haweli

सत्येंद्र कुमार

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सत्येंद्र कुमार

दादा की हवेली

सत्येंद्र कुमार

और अधिकसत्येंद्र कुमार

     

    एक

    दादा ने घोड़े पाले,
    तलवारें चमकाईं, 
    धरती रौंदी...
    बावन गाँव जीते।
    दादा की हवेली थी...
    उनकी वीरता के क़िस्से थे, 
    जिन्हें उनकी रखैलों ने 
    काजल की तरह 
    अपनी आँखों में बसाए रखा था।
    (उनकी नज़रों में दादा नेपोलियन थे)
    उनके अस्तबल में हमेशा 
    विजेता घोड़े हिनहिनाते रहते;
    उनकी तलवार सूर्य की तरह चमकती रहती।
    बावन गाँव के पसीने से
    आबाद रही थी हवेली...
    आबाद रहे घुँघरुओं के बोल।

    दो

    बावन गाँवों के पसीन से सींची गई हवेली...
    बावन गाँवों के पसीने से ही दादा नायक बने।
    उनकी कहानियाँ गढ़ी गईं, 
    झूठे ख़िताब दिए गए...
    भाँड़ों की चाटुकारिता से भरी रही हवेली।
    बावन गाँवों के पसीने से 
    हिनहिनाते रहे घोड़े 
    थिरकते रहे घुँघरू;
    रचा गया उनका इतिहास।
    धीरे-धीरे बावन गाँवों के लोगों ने
    महसूस की अपने पसीने की ताक़त।
    जैसे ही उनकी उँगलियाँ उठीं हवेली की ओर, 
    प्रेत बन गए दादा
    खंडहर बन गई हवेली।

    तीन

    हवेली खंडहर में बदल गई, 
    हवेली वाले प्रेतों में।
    वेश्याओं के इत्र की गंध
    हवा में बिला गई।
    समंदर में डूब गए सबके सब घोड़े
    दादा की चमकती तलवार
    उनकी ही हवेली के सीने में धँस गई।
    हवेली के प्रेतो! 
    ‘वाटरलू’ के मैदान से लौटे घोड़े और तलवार 
    दादा के कोई काम न आए।
    तुम भी 
    क्यों नहीं ढूढ़ लेते 
    अपनी मुक्ति के उपाय?

     
    स्रोत :
    • पुस्तक : आशा इतिहास से संवाद है (पृष्ठ 70)
    • रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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