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अब जबकि तुम इस शहर में नहीं हो

ab jabki tum is shahr mein nahin ho

शरद बिलाैरे

शरद बिलाैरे

अब जबकि तुम इस शहर में नहीं हो

शरद बिलाैरे

हफ़्ते भर से चल रहे हैं

जेब में सात रुपए

और शरीर पर

एक जोड़ कपड़े

एक पूरा चार सौ पृष्ठों का उपन्यास

कल ही पूरा पढ़ा,

और कल ही

अफ़सर ने

मेरे काम की तारीफ़ की

दोस्तों को मैंने उनकी चिट्ठियों के

लंबे-लंबे उत्तर लिखे

और माँ को लिखा

कि मुझे उसकी ख़ूब-ख़ूब याद आती है

संवादों के

अपमान की हद पार करने पर भी

मुझे मारपीट जितना

ग़ुस्सा नहीं आया

और बरसात में

सड़क पार करती लड़कियों को

घूरते हुए मैं झिझका नहीं

तुम्हें मेरी दाढ़ी अच्छी लगती है

और अब जबकि तुम

इस शहर में नहीं हो

मैं

दाढ़ी कटवाने के बारे में सोच रहा हूँ।

स्रोत :
  • पुस्तक : तय तो यही हुआ था (पृष्ठ 85)
  • रचनाकार : शरद बिलौरे
  • प्रकाशन : परिमल प्रकाशन
  • संस्करण : 1982

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