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छठ

chhath

शिरीष कुमार मौर्य

अन्य

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और अधिकशिरीष कुमार मौर्य

    आधी देह तक पानी में खड़ी औरतें

    काँपती हुई अपने होने की अनगिन मुश्किलों का पर्व मनाती हैं

    हम उनके इस तरह होने को

    कुछ और होने-पाने की मन्नत समझ लेते हैं

    हमारी भी मुश्किल यही है कि हम सब कुछ समझ लेते हैं

    जो होता ही नहीं कहीं उसे भी समझ लेने की प्रतिभा से भरे

    हम पुरुष हैं

    उन औरतों ने चाहा था समझाएँ हमें हमारा होना

    पर हमने अक्सर उन्हें अपने होने में एक एकाकी अँधेरा कोना दिया

    जिसमें वे अब भी

    दीए की लौ सरीखी धीरे-धीरे मद्धम और एकाग्र थरथराती हैं

    हिलती हैं

    इधर जगत में सब कुछ को ढाँकती

    हमारे होने की

    कई-कई शानदार रोशनियाँ जलती हैं

    वह ढलने का उत्सव मनाती हैं

    हम उगने का

    हमारे उगने में शामिल होता है उनका चुपचाप ढल जाना

    मैं भी चाहता हूँ एक एकाकी शाम

    मेरे भीतर के पानी में खड़े रोशनी के ढलते हुए किसी बिंब से मिल आना

    चाहता हूँ उससे कहूँ

    सुनो

    मेरे हिस्से में रात बहुत है

    कोई व्रत अनहुआ नहीं कर सकता इसका होना

    तुम ख़ुद हो रहो इसमें

    मेरी तरह निरीश्वर

    उस बोझे को उतार जो सदियों से

    ढोया तुमने अपने होने की तरह

    होना एक कठिन क्रिया है

    जानता हूँ उस क़दर सरल कोई हो नहीं सकता

    जिस क़दर मैं चाहता हूँ तुम हो रहो

    सुनो

    तुम्हारी ख़ामोशियाँ कहती हैं जिसे

    बस एक बार होने की सरलता में रही

    ठीक उसी कठिनाई को

    बाआवाज़ कहो!

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिरीष कुमार मौर्य
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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