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चश्मा

chashma

अनुवाद : सच्चिदानंद दास

ब्रजनाथ रथ

अन्य

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और अधिकब्रजनाथ रथ

    जानता हूँ

    अंधे को चक्षुष्मान बनाने की

    अपूर्व क्षमता मुझमें नहीं,

    पर क्षीण दृष्टि को

    बहुगुणा करने की

    विपुल शक्ति से मैं हूँ शक्तिमान।

    आजन्म अंधे को—

    चक्षुष्मान भला कौन करे?

    वह तो चिरकाल ही दृष्टिहीन, अंधा;

    कुछ देख सकना ही है

    उसकी चरम दुर्बलता;

    और उजाले के पास होते हुए भी—

    उसे अस्वीकार करना ही

    उसका एकमेव धर्म है।

    मेरी भला वैसी

    जादुई शक्ति कहाँ,

    जिसके बल पर

    अंधे को करूँ चक्षुष्मान!

    भर दूँ दिव्यदृष्टि!

    अंधों के राज्य में

    मेरी भला क्या ज़रूरत?

    मैं क्या कभी कर सकूँगा

    उनकी तामसी दृष्टि में...

    अपार आलोक की वृष्टि?

    बस इतना ही कर सकता हूँ—

    रास्ता तलाशने में असमर्थ

    पथिक की क्षीण आँखों में...

    क्षणभर के लिए भर सकता हूँ

    ढूँढ़ सकने की दृष्टि।

    इसी में मुझे है परम तृप्ति

    और इसी में जीवन की—

    चरम मुक्ति।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन ओड़िया कविता (पृष्ठ 23)
    • रचनाकार : बृजनाथ रथ
    • प्रकाशन : भारतीय साहित्य केंद्र
    • संस्करण : 2013

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