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कार

kar

आर. चेतनक्रांति

अन्य

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और अधिकआर. चेतनक्रांति

    एक कार ले के चल दिया इक घर पे खड़ी है,

    इक और भी है पर वो इस गली से बड़ी है।

    ये कार मेरा शहर है मेरा मकान है,

    हाँ मानता हूँ, इससे परे भी ज़हान है;

    गंदी गली, कच्ची सड़क, थूके हुए-से लोग!

    ये मुल्क नहीं, यार मेरे, नाबदान है।

    मेरी जगह पे आइयो तो देगा सुनाई,

    मेरी जगह से झाँकियों तो देगा दिखाई;

    इस शरह की औक़ात बताती है ये खिड़की,

    इस व्हील से खुल जाती है ग़ैरत की सिलाई।

    एक हॉर्न जो दे दूँ तो दहल जाए मोहल्ला,

    उतरूँ हूँ जो सड़क पे तो पड़ जाए है हल्ला;

    ये कार हौसला है, ये ताक़त है, शान है,

    इस मुल्क में ये सिर्फ़ सवारी नहीं लल्ला!

    ख़ुशबू मुझे पसंद है तो ये लगी इधर,

    गाने नए सुनता हूँ, यहाँ डेक पे जी-भर;

    एकाध बार इसमें घुमाया है माल भी,

    देखो है दाग़ अब भी वहाँ पिछली सीट पर।

    अहमक़ तुझे मालूम नहीं, चीज़ है फ़न क्या,

    दिल्ली में कार क्या है और बदन की तपन क्या;

    घिस जाओगे कंडक्टरों की जूतियों तले,

    होती नहीं तुझको कभी यारों से जलन क्या!

    हो कार तो पुलिस भी सोचती है सौ दफ़ा,

    ठहरे सामने कोई, पीछे हो खड़ा;

    इज़्ज़त है कार की बहुत और ख़ौफ़ अलग है,

    कुछ भी हो कोई भी कभी कहता नहीं बुरा।

    कुछ काम ले अक़्ल से, ज़ोर खोपड़ी पे डाल,

    कुछ बैंक से उधार ले, कुछ बाप से निकाल;

    कर ले जुगाड़ एक कार का किसी तरह,

    ये चूतिए जो साथ हैं इनको परे हकाल।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वीरता पर विचलित (पृष्ठ 37)
    • रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

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