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उदयन वाजपेयी

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और अधिकउदयन वाजपेयी

    वे अँधेरे कमरे में बैठे-बैठे अचानक फूट पड़ते हैं। वहाँ कोई नहीं होता जो ऐन वक़्त

    पर उन्हें सँभाल सके। उनके आँसू अँधेरे में गुम फ़र्श पर ओस की तरह चुपचाप

    टपकते हैं। कोई सुनता नहीं उनके सुबकने की आवाज़। पर वह होती ज़रूर है।

    अँधेरे में चीख़ की तरह निरंतर घुलती हुई। फिर ईश्वर आकाश की खिड़की खोल

    बाहर झाँकता है और पृथ्वी पर फैली अपनी ही माया के वैसा होने पर रोने लगता है।

    मुझे एक बार एक मल्लाह ने बताया था कि ओस पृथ्वी पर झरते ईश्वर के आँसुओं

    की फुहार है जो कई बार हवा में लटकी रहती है और कई बार घास की नोक पर

    चमकती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पागल गणितज्ञ की कविताएँ (पृष्ठ 31)
    • रचनाकार : उदयन वाजपेयी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2005

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