Font by Mehr Nastaliq Web

बीमार आदमी फ़रार दोस्त

bimar adami farar dost

राजेंद्र यादव

अन्य

अन्य

राजेंद्र यादव

बीमार आदमी फ़रार दोस्त

राजेंद्र यादव

और अधिकराजेंद्र यादव

    'उहुँक

    अरे भाई, कौन हो?

    फिर कभी आना।

    तार है?

    कल सुबह लाना।

    बीमार हूँ, उठ नहीं सकता।

    अस्त-व्यस्त पड़ा हूँ

    नगर यह बड़ा है

    फ़ुर्सत किसे है कि कहा हूँ

    फिर कभी आना

    ‘अरे अरे, यह क्या?

    कोई तहज़ीब है यह?

    आप खिड़की की राह ही भीतर कूद आए?

    निकलो निकलो

    वर्ना शोर मचाता हूँ।

    जाने कौन-कैसा पड़ा हो।

    यह मुँह पर क्या बाँधे हो?

    ऐं, चोर हो?

    ‘नहीं, मेरे पास कुछ नहीं बचा

    अंतिम अँगूठी थी, होटल को सौंप दी

    सच, यहाँ कुछ भी नहीं

    ‘आँऽऽ,

    अरे यह तो तुम हो, मेरे दोस्त?

    दोस्त दोस्त तुम यहाँ?

    लोगों को बहकाने के अपराध में,

    सुना, तुम फ़रार थे।

    अचानक टपक पड़े,

    ख़त तार?

    भले आदमी, दो शब्द ही लिख देते।

    ‘मानोगे,

    अभी-अभी जँगले में ताकता,

    तुम्हारी ही बात सोच रहा था?

    जाने कैसे होगे? कहाँ होगे?

    देखो, क्या हाल है तुम्हारे इस बंधु का?

    ट्राम-बस की भाग-दौड़,

    दफ़्तर की फ़ाइलें,

    टाइपराइटर के साथ-साथ

    स्टेनो की गुज़रती खुट-खुट

    चपरासी की घंटियाँ

    नियॉन लाइटों के दूधिया-ट्यूब

    बाहर फिर वही जलते और बुझते विज्ञापन

    दिन जैसी रौशनी

    तुम वहाँ कहाँ दीखते?

    तुम तो फ़रार थे

    हाँ, सिनेमा के पर्दों पर

    या रातवाले रेस्त्राओं में

    किताबों में,

    तस्वीरों को देखकर,

    कभी-कभी लगता था

    चेहरा तुमसे कितना मिलता है

    लेकिन तभी सूचनाएँ कौंध जाती थीं

    ‘‘फ़रार का पता दो, भरपूर इनाम लो।’’

    ‘और तब सहसा ही,

    पुराने दिन जागते थे

    याद है न?

    हम और तुम लिपट-लिपट सोते थे

    रेलों में चलते थे

    कभी इस, कभी उस खिड़की से झाँकते थे

    बादलों के सागर में मछली से तैरते

    मैं मुग्ध ताकता, तुम धारा थाह जाते थे

    लहर-लहर नहाते थे

    मैं उदास होता था,

    हथेलियों में चेहरा लिए

    बुझे-से बैठ जाते थे

    ‘अब तो

    अब तो वो सब यादें भी याद नहीं

    कभी-कभी बस से, ट्राम से उतरकर

    घर तक आते हुए,

    सिनेमा गुनगुनाते हुए

    यों ही सिर उठ गया

    लगा, तुम्हारी झलक दीखी थी

    लेकिन वह भी किसी फ़्लैट से झाँकते

    मुखड़े में खो गई

    ‘अरे,

    तुम कुछ बोलो न?

    देखों, मैं भी तो पागल हूँ

    अपनी ही बक गया

    ‘दोस्त,

    आज बीमारी में

    अचानक तुम गए

    सच, मन जुड़ा गया

    वर्ना बड़ी बेकली थी

    नस-नस तड़कती थी

    नींद नहीं आती थी

    तबियत बहुत डूबी थी

    ‘चाँद, भाई

    तुम भी कुछ बोलो न?

    हम तुम दूर सही

    भूले तो नहीं ही हैं

    स्रोत :
    • पुस्तक : आवाज़ तेरी है (पृष्ठ 78)
    • रचनाकार : राजेंद्र यादव
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1960

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए