बिकी हुई एक क़लम

biki hui ek qalam

दामिनी यादव

दामिनी यादव

बिकी हुई एक क़लम

दामिनी यादव

बिकी हुई क़लम के दाम बहुत होते हैं

पर बिकी हुई क़लम के काम भी तो बहुत होते हैं

बिकी हुई क़लम को कीचड़ को कमल कहना पड़ता है

बिकी हुई क़लम को क़ातिल को सनम कहना पड़ता है

बिकी हुई क़लम को मौक़े पर ख़ामोश रहना होता है

और बेमौक़े ‘सरकार की जय’ कहना होता है

बिकी हुई क़लम एक खूँटे से बंधी होती है

बिकी हुई क़लम की स्याही जमी होती है

बिकी हुई क़लम रोती नहीं, सिर्फ़ गाती है

बिकी हुई क़लम से सच की आवाज़ नहीं आती है

बिकी हुई क़लम शाहों के तख़्त नहीं हिला पाती है

बिकी हुई क़लम सिर्फ़ चरण-पादुका बन जाती है

बिकी हुई क़लम से आंधियाँ नहीं उठती हैं

बिकी हुई क़लम से सिर्फ़ लार टपकती है

बिकी हुई क़लम एक वेश्या होती है

जो अनचाहे जिस्मों को हँसके अपने जिस्म पे सहती है

बिकी हुई क़लम की कोख बंजर होती है

बिकी हुई क़लम अपनों ही की पीठ में घुसाया ख़ंजर होती है

बिकी हुई क़लम से लिखा इतिहास सिर्फ़ कालिख़-पुता काग़ज़-भर होता है

बिकी हुई क़लम का काँधा सिर्फ़ अपने शब्दों का जनाज़ा ढोता है

बिकी हुई क़लम और जो चाहे बन जाती है

पर बिकी हुई क़लम, क़लम होने का हक़ अदा नहीं कर पाती है

बिकी हुई क़लम बदल जाती है चरण-पादुका में

बिकी हुई क़लम सिर्फ़ क़लम ही नहीं रह पाती है

बिकी हुई क़लम सिर्फ़ क़लम नहीं रह पाती है...

स्रोत :
  • रचनाकार : दामिनी यादव
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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