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बिदा वेला

bida wela

भारतभूषण अग्रवाल

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और अधिकभारतभूषण अग्रवाल

    पाया सनेह, पा सकीं पर तुम अभी बिदा-रीति का ज्ञान

    पगली! बिछोह की वेला में बिन माँगे ही प्रीति का दान।

    दो मुझे। कहो इस अंतिम पल में एक बार ‘प्रियतम' धीमे

    पूछो : ‘कब लौटोगे, वसंत में? वर्षा में? शारद-श्री में?

    शीत की शर्वरी में?’ सरले! मत रह जाओ नतमुख उदास

    लाज से दबी। कल जब यह पल होगा अतीत, तब अनायास

    मुखरित होगी यह नीरवता, बन व्यथा, वियोगी प्राणों में

    तब तुम सोचोगी बार-बार : ‘क्यों आँसू में, मुस्कानों में

    दु:ख-सुख की उस अद्वितीय घड़ी को किया मैं ने अमर?' प्रिये!

    यह कसक तुम्हें कलपाएगी : ‘क्यों मैं ने प्रिय को अश्रुपिए

    नयनों से नहला दिया न, संचित किया क्यों कुछ आश्वासन

    इस विरह-काल के लिए हाय! भर आलिंगन, पा कर चुंबन!'

    स्रोत :
    • पुस्तक : तार सप्तक (पृष्ठ 94)
    • संपादक : अज्ञेय
    • रचनाकार : भारतभूषण अग्रवाल
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2011

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