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भूख

bhookh

सुलोचना

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भूख

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    एक

    तोड़कर धरती की गहरी नींद
    जग उठता है मिट्टी का चूल्हा
    अदृश्य सीढ़ियों से उतर आती है भूख

    किसी हवनकुंड-सा दिखता है चूल्हा
    भूखे साधक को, पेट भरने के अनुष्ठान में
    साधना को भंग करती है तृप्ति
    चूल्हा ध्यानमग्न हो जाता है धरती की साधना में 

    बीत गया एक अरसा, बीते हुए मिट्टी को चूल्हे से
    कितने साधक आए, साधना की और चले गए
    गुम हो गए, लौटकर भूख के अतृप्त प्रदेश में
    बनकर साक्षी देखता रहा समय का पैग़ंबर

    नहीं जगाता अब किसी को भी नींद से मिट्टी का चूल्हा 
    कि धरती को अब नींद ही कहाँ है आती 
    भूख है कि अदृश्य सीढ़ियों से फिर भी उतर आती है!

    दो

    मैंने देखा है उन्हें भूख से कुलबुलाते हुए 
    जब पार होती है उनके सहने की सीमा 
    वे चबाने लगते हैं संविधान के ही पन्ने
    या शहीदों पर चढ़ी माला के फूलों को  
    जिससे थोड़ा और पंगु हो उठता है देश
    और थोड़ा भारी हमारे मुल्क का ध्वज 
    जो फहर तो जाती है ऊँचे आसमान में 
    विश्व के मानचित्र पर गर्व से नहीं लहराती 

    अब यह कोई आम भूख तो है नहीं 
    जो लगे अलस्सुबह के नाश्ते से लेकर 
    रात के खाने तक के सफ़र के ही बीच 
    यह एक ऐसी भूख है जो कभी नहीं मिटती 
    इसीलिए जब कभी नहीं भरता उनका पेट 
    मिठाई, रोटियों, फलों या सब्ज़ियों से 
    जानने को अपनी इस भूख का आयाम 
    वे किसानों की ज़मीन ही खा जाते हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुलोचना
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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