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भट्टी

bhatti

शांति यादव

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और अधिकशांति यादव

    थापती हूँ जब मैं कंडे,

    विभिन्न आकार के,

    सोचती हूँ

    इन कंडों की तरह

    यदि मिली होती

    यह दुनिया बनाने को।

    सबसे पहले बनाती,

    मैं स्वयं को

    नए ढाँचे में।

    समाज बनाती

    नये साँचे में।

    फिर मेरी बच्चियों की,

    मेरी पीड़ा की

    यों हलाली तो होती

    पर क्या करूँ?

    प्रकृति ने

    मुझे साँचा बना दिया

    दूसरे के हाथों का।

    वह जब चाहता है

    इस्तेमाल कर लेता है

    जब तक बुत बनाने की शक्ति

    मुझमें होती है

    फिर बना देता है

    मुझे भट्टी,

    उन बुतों को

    पकाने के लिए।

    बचा लेता है

    अपने हाथ जलने से,

    और दहकते-दहकते

    मैं राख हो जाती हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 203)
    • संपादक : कँवल भारती
    • रचनाकार : शांति यादव
    • प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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