भाषाएँ

bhashayen

सुनील कुमार शर्मा

भाषाएँ जानती हैं,

नहीं मिलेगा उन्हें अमरत्व

नहीं पी पाई थीं

समुद्र मंथन से निकला अमृत

अहसास है आने वाले संकट का

विलुप्त होने का

अर्थ खोने का।

अवसर भी है दबाव भी

नए रूप धरने का

पर सहमी हुई हैं

मतलब समझ रही है

गज को ही चुरा ले गया कोई,

युधिष्ठिर के कहे से।

अश्वथामा के तले ही

सत्य दब गया।

कोई स्माइली कोई इमोटिकॉन

चुपका कर शब्दों की साँस

ही घोंट गया।

बेजान नहीं हैं,

वे बेचैन हैं

संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन,

औषधि-शास्त्र या विज्ञान

किन्हें सौंपे

यक्ष प्रश्न बना हुआ है।

कचोटता है प्रश्न उन्हें जब

असुरक्षित महसूस करने लगती हैं,

डर बना हुआ है भीतर

मालूम है उन्हें

तकनीकों और पुरस्कारों की बैसाखियों पर

या संस्थाओं के वेंटीलेटर से ली

उधारी की साँसों पर

बहुत दिन कुलाँचें नहीं भर पाएँगी

वे बहती हुई नदियाँ हैं

स्रोत जल सोखेगा तो

तो सूख जाएँगी

या स्वयं ही ले लेंगी समाधि

हालाँकि फिर संस्कृतियाँ भी

नहीं बच पाएँगी

खो जाएँगे बहुत से विचार

शब्दों के साथ

सूख जाएँगे आँसू और संवेदनाएँ।

इंसान भी कितने इंसान

बचे रह पाएँगे

इतना कुछ खोने के बाद

कहना मुश्किल है

रही यदि चंद ही शेष

तो समुंदर की तरह महाकार हो

किस तरह अपनी विश्व सत्ता चलाएँगी।

सोचना है बाक़ी सब क्या फिर

समुद्र में विलीन हो जाएँगी

रहस्य की परतें बनकर

हज़ारों साल बाद

निकालेंगे ग़ोताखोर भग्नावशेष।

वैसे पुनर्जन्म की संभावना

सुकून के लिए अच्छी बात है

लेकिन संकटों के साथ बचे रहने

में छुपा है जीवन का सार

खोज पाए तो ठीक

वरना करना होगा इंतज़ार

अगले समुद्र मंथन का।

स्रोत :
  • रचनाकार : सुनील कुमार शर्मा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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