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भाषा

bhasha

श्रुति कुशवाहा

अन्य

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और अधिकश्रुति कुशवाहा

    इन दिनों रास्ता भटक रही है भाषा

    अब विरोध कहने पर विद्रोह सुनाई देता है

    असहमति कहने पर अराजक

    लोकतंत्र कहते ही होने लगती जोड़-तोड़

    धर्म कहो सुनाई देता भय

    अब तो सफ़ेद भी सफ़ेद नहीं रहा

    और लाल भी हो गया नीला

    यहाँ तक कि अँधेरे समय को बताया जा रहा है सुनहरा

    ऐसे भ्रमित समय में

    मैं शब्दों को उनके सही अर्थ में पिरोकर देखना चाहती हूँ

    सोचती हूँ शहद हर्फ़ उठाकर उड़ेल दूँ शहद की बोतल में

    तुम्हारे नमकीन चेहरे पर मल दूँ नमक का नाम

    आँसू को चखा दूँ खारा समंदर

    रोशनी को रख दूँ मोमबत्ती की लौ पर

    मैं इंसाफ़ बाँट आना चाहती हूँ गली के आख़िरी छोर तक

    और बचपन लिखने की बजाए

    बिखेर देना चाहती हूँ अख़बार बेचते बच्चों के बीच

    सपने टूटने से पहले

    सजा देना चाहती हूँ आँखों में

    और प्यार को इश्तिहारों से उठा

    मन में महफ़ूज़ रखना चाहती हूँ

    मैं भटकी हुई भाषा को उसके घर पहुँचाना चाहती हूँ

    स्रोत :
    • रचनाकार : श्रुति कुशवाहा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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