बासंतिक कवि एवं ऋतु छवि

basantik kawi ewan ritu chhawi

मुसाफ़िर बैठा

मुसाफ़िर बैठा

बासंतिक कवि एवं ऋतु छवि

मुसाफ़िर बैठा

कवियों ने बसंत के गीत असंख्य गढ़े हैं।

पढ़े हैं क़सीदे निर्बंध अनंत उसके

की हैं कसरतें तमाम सुख शांति आह्लाद

ढूँढ़ पा लेने की महज़ इसी मौसम में

मानो अन्य तमाम ऋतुओं को

इसकी सरदारी में लताड़ लगाना ज़रूरी हो

किसी ने वीरों का बसंत ढूँढ़ा

किसी ने प्यार प्रेम की पेंगें बसंत में ही बढ़ाने की कड़ियाँ जोड़ीं

जैसे पंडित पतरा से बांधते हैं दिन

नागरी ललनाओं ने बसंत को क्लबों होटलों की पार्टियों में

बाजबरर्दस्ती पटक पहुँचाया

इस ऋतु को अलग से दुलारा सहलाया गया नाहक

और दूजे से सौतेला किया गया व्यवहार

वर्षा जैसी जीवनदायिनी ऋतु को भी कवियों ने

इसके आगे दिया मान

जैसे कि हरियाली की नींव धरने वाली

बसंत को कोख देने वाली इस ऋतु से

कवि नातेदारी की कोई ज़रूरत ही हो।

बसंत को पुरुष कवियों ने अपनी सुविधा एवं मर्द नज़रों से देखा

सावन को तरह तरह से झुमाया

युवा नारी देह की सोलह को सावन से लगाया

गोया मर्द देह को सावन से समझा ही नहीं जा सकता

ऋतुओं से जो दो चार नहीं करते

होते हों साफ़ अनभिज्ञ

होटलों क्लबों में वे सावन और बसंत के गीत गाते हैं

जबकि दो जून की रोटी को संघर्षरत मज़दूरों का, आम जनों का

तो कोई सावन होता है भादो

बसंत तो अलग से बिलकुल ही नहीं

सावन का अँधा भले ही होता आया हो कवि

पर बसंत और सावन की अंधभक्ति आरती में तो

भेड़ियाधसान उतरता रहा ही है कवि।

स्रोत :
  • रचनाकार : मुसाफ़िर बैठा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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