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बदली हुई रंगत के साथ

badli hui rangat ke sath

नरेंद्र पुंडरीक

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नरेंद्र पुंडरीक

बदली हुई रंगत के साथ

नरेंद्र पुंडरीक

और अधिकनरेंद्र पुंडरीक

    आषाढ़ के दिन थे दो तीन बार

    बारिश झमझमा चुकी थी

    सोधीं-सोंधी मह-महकाती हुई धरती में

    लाल-लाल मख़मली राम की बुढ़िया रेंगने लगी थी

    जो धरती की कुछ-कुछ तैयारी का वक़्त था

    स्कूल खुल गए थे

    स्कूल जाना शुरू हो गया था या नहीं

    ठीक से याद नहीं

    पर याद है इन दिनों का कि

    घरगूले बन रहे थे हमारे चिलबिले के नीचे

    इस समय हमें मैं और तुम का भान नहीं था

    तुम बना रही थीं हमारे साथ घरगूले

    तुमसे कुछ कम अच्छे थे हमारे घरगूले

    हमें रसोई के पूरे बर्तन याद नहीं थे

    मालूम था दाल और सब्ज़ी में

    डाले जाते हैं कौन-से मसाले

    तवे का उल्टा सीधा होना मालूम था

    रोटी सेंकने का सहूर था पोने का

    यह भी नहीं मालूम था कि

    कैसे बनाया जाता है चूल्हा और

    कैसे सुकचाई जाती है उसमें आग

    जो घर को घर बना कर रखती है

    हमारे घरगूले थे ऊबड़-खाबड़

    दीवारें बनी थीं तुमसे ऊँची और मज़बूत

    उनमें खिड़कियाँ थीं, रोशनदान

    सुना है शाहजहाँ ने छोड़ रखी थी अपने क़िले में

    एक खिड़की मुमताज़ महल के लिए

    मैंनें वह भी नहीं छोड़ी थी तुम्हारे लिए

    आँगन तो बिल्कुल नहीं छोड़ा था मैंने

    क्योंकि कभी तुम्हारे लिए घर में आकाश की

    ज़रूरत नहीं महसूस हुई थी

    उसमें टहलने वाले सूरज-चाँद की

    तुम्हारे घरगूले के दरवाज़े हमसे छोटे थे

    पर हर दीवाल में तुमने बना रखी थी

    खिड़कियाँ और रोशनदान

    ख़ूब खुला था तुम्हारे घर का आँगन

    जहाँ से दिखाई दे रहा था पूरा आसमान

    सूरज और चाँद बिला नाग़ा तुम्हारे आँगन में उतरते थे

    पर मुझे अपने घरगूले की

    ऊँची-अभेद्य दीवारें और

    उसके अँधेरों पर नाज़ था

    मेरे घर की दीवारें खंडहर हो चुकी हैं

    लेकिन अभी ढही नहीं हैं और उनमें

    अँधेरा अब भी वैसे ही ठहरा हुआ है

    अपने बदली हुई रंगत के साथ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नरेंद्र पुंडरीक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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