Font by Mehr Nastaliq Web

बड़ी हो रही बेटियों के पिता

baDi ho rahi betiyon ke pita

उमा शंकर चौधरी

अन्य

अन्य

उमा शंकर चौधरी

बड़ी हो रही बेटियों के पिता

उमा शंकर चौधरी

हम अपनी बच्ची के जन्म पर

चाहें जितना ख़ुश हो लें

और चाहें जितना इतरा लें उसके बचपन की

उन मासूम हरकतों पर

परंतु सच यह है कि बेटियाँ ज्यों-ज्यों बड़ी होती हैं

चिंता की लकीरें बढ़ने लगती हैं

पिता के चेहरे पर

बढ़ने लगती है हवा में ख़ुश्की

और घटने लगता है सरसों के लहलहाते खेत में

सरसों के फूलों का ठस्स पीलापन

मेरे पिता कहते थे कि

बेटियाँ ही हैं

जिन्होंने इस सृष्टि को बना रखा है इतना हरा-भरा

बेटियाँ ही हैं

जो यह पृथ्वी घूम रही है अपने अक्ष पर

बेटियाँ ही हैं

जो यह सूर्य निकल रहा है पूरब दिशा में

बेटियाँ ही हैं जो

चिड़िया अब भी बैठती है और चहकती है हमारी मुँडेर पर

परंतु बेटियाँ बड़ी हो रही होती हैं तो पिता

संदेही होने लगते हैं

पिता की निगाह सतर्क होने लगती है

वे करने लगते हैं शक अपने घर में आने वाली

हवा, पानी, ख़ुशबू और यहाँ तक कि

धूल के कणों तक पर

वे बन बैठते हैं अपने ही घर के एक सख़्त पहरेदार

घर पर जो आते हैं अतिथि

वर्षों के संबंध के बावजूद पिता करने लगते हैं

उन पर संदेह

रखने लगते हैं उन पर एक चोर निगाह

बड़ी हो रही बेटी हँसती है, ठठाती है

और घूमती है बेफ़िक्र

तब पिता अपनी नज़रों को बना लेते हैं एक कवच

और बिन बताए ही वे करने लगते हैं अपनी बेटी की

एक अघोषित-सी सुरक्षा

पिता घंटों बैठते हैं अपने अतिथियों के साथ

लेकिन जब बड़ी हो रही बेटी आती है

अपने हाथ में लिए हुए चाय की ट्रे

तब पिता अपने हाथ से ट्रे रखती हुई बेटी को कम

उस अतिथि की निगाह को ताड़ने की करते हैं कोशिश ज़्यादा

बड़ी हो रही बेटी के पिता को हर वक़्त लगता है

कि बेटी असुरक्षित है

बेटी बाहर खेलती है तब असुरक्षा है

बेटी स्कूल जाती है तब असुरक्षा है

बेटी साँस ले रही है तब असुरक्षा है

बेटी पूर्णमासी की चाँद की तरह खिल रही है

तब भी है यह असुरक्षा

बड़ी हो रही बेटियाँ जाती हैं घर के बाहर

तब पिता की निगाहें टिकी होती हैं

घर के दरवाज़े पर

बड़ी हो रही बेटी ज्यों-ज्यों बड़ी होती जाती है

पिता की आँखों में वह

गुलाब के रस की तरह गड़ने लगती है

बड़ी हो रही बेटी ज्यों-ज्यों बड़ी होती जाती है

पिता की नींद पतली होने लगती है

कम होने लगती है उनकी नींद की गहराई

कम होने लगता है उसमें सपनों का आना

बडी हो रही बेटियाँ पिता की धड़कन होती हैं

इसे पिता भी जानते हैं

और बेटियाँ भी

परंतु बेटियाँ इस सच को थोड़ा देर से समझ पाती हैं

कि बाहर फ़िज़ाएँ हैं कितनी ज़हरीली

जबकि पिता जान चुके होते हैं पहले ही कि

बाहर की हवा में है कितना रूखापन

वे जान चुके होते हैं पहले ही कि

बाहर के मौसम में है कितनी ख़ुश्की

और कितनी है उमस

क्योंकि पिता जब होते हैं पिता की भूमिका से बाहर

तब वे भी होते हैं सिर्फ़ पुरुष।

स्रोत :
  • रचनाकार : उमाशंकर चौधरी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY